नागरिक अधिकारों का फैसला शक के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, दशकों पुराने केस में दिल्‍ली हाई कोर्ट का फैसला

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नागरिक अधिकारों का फैसला शक के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, दशकों पुराने केस में दिल्‍ली हाई कोर्ट का फैसला

हाइलाइट्स

  • पांच दशक पुराने दीवानी केस में दिल्‍ली हाई कोर्ट का फैसला
  • ‘संदेह और अटकलों पर नहीं खारिज किया जा सकता दावा’
  • दशकों पुराने आदेशो को रद्द करते हुए हाई कोर्ट की टिप्‍पणी

नई दिल्ली
लगभग पांच दशक पुराने एक दीवानी विवाद पर अपना फैसला सुनाते हुए दिल्‍ली हाई कोर्ट ने कहा कि कानून में, संदेह या आक्षेप, किसी दीवानी दावे को खारिज करने के लिए एक वैध या न्यायोचित आधार के रूप में मान्य नहीं हो सकता। पक्षकारों के नागरिक अधिकारों का फैसला अटकलों और संदेह के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। किसी भी मामले में अनुमानों पर जारी आदेश, चाहे प्रशासनिक हो या न्यायिक, न्यायिक परीक्षण का सामना नहीं कर सकता है।

हाई कोर्ट में दी गई चुनौती
जस्टिस यशवंत वर्मा ने यह टिप्पणी दशकों पुराने दो आदेशों को रद्द करते हुए की। उनमें से एक आदेश उपराज्यपाल का है और दूसरा फाइनेंशियल कमिश्नर का। प्रमुख याचिकाकर्ता का नाम संत बाबा गुरमैल सिंह है और दावा नॉर्थ-वेस्ट जिले के सिरसपुर में 57 बीघा और 4 बिस्वा जमीन को लेकर है। याचिकाकर्ता ने उन आदेशों को हाई कोर्ट में चुनौती दी थी, जिसके तहत संबंधित जमीन को लेकर उनके दावों को आशंकाओं के आधार पर ठुकरा दिया गया और उसे गांव सभा की जमीन के तौर पर दिल्ली के स्वास्थ्य सेवा निदेशालय को अस्पताल निर्माण के लिए सौंप दी गई। हाई कोर्ट ने एलजी और फाइनेंशियल कमिश्नर के 1994 के आदेशों को रद्द कर दिया।

मामले को वापस फाइनेंशियल कमिश्नर के पास भेजते हुए उनसे अनुरोध किया गया वह दो महीने के भीतर विवाद का निपटारा कर दे, क्योंकि विवाद 1981 का है, और उससे जुड़ी याचिकाएं इस कोर्ट में 1994 से लंबित पड़ी रहीं। कोर्ट ने एलजी से कहा कि वह फाइनेंशियल कमिश्नर द्वारा विवाद के निपटारे के बाद प्रस्तावित अस्पताल के लिए इस जमीन की वैधता पर विचार करें।

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याचिकाकर्ताओं का कहना था कि उक्त जमीन 1976 से उनके पास थी, जिस पर वे खेती करते थे। दावा किया कि 1984 में जब दिल्ली में सिख विरोधी दंगे हुए तो इस जमीन पर बने गुरुद्वारे को भी दंगाइयों ने आग लगा दी, जिसमें जमीन के ओरिजनल सेल डीड के पेपर भी नष्ट हो गए। केस के मुताबिक, प्रशासनिक अधिकारी और एलजी ने पहले तो इनके दावे को मंजूर कर लिया और संबंधित जमीन से अस्पताल को शिफ्ट करने की मंजूरी दे दी। बाद में किसी दूसरे पक्ष की आपत्ति के बाद याचिकाकर्ता के दावों पर आशंका जताते हए अपने फैसले पलट दिए और उन्हें जमीन के अधिकार से बेदखल कर दिया था।

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