पावर प्रोजेक्ट और कूटनीति : श्रीलंका में जब दाल नहीं गली तो चीन ने पाकिस्तान को लगाया, लेकिन भारत ने कर दिया नाकाम, पढ़िए इनसाइड स्टोरी

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पावर प्रोजेक्ट और कूटनीति : श्रीलंका में जब दाल नहीं गली तो चीन ने पाकिस्तान को लगाया, लेकिन भारत ने कर दिया नाकाम, पढ़िए इनसाइड स्टोरी

हाइलाइट्स

  • भारत के काफी नजदीक श्रीलंका के तीन द्वीपों पर पावर प्रोजेक्ट का काम चीन से छिना
  • इस साल जनवरी में ही भारत ने इस प्रोजेक्ट पर जताई थी आपत्ति, रणनीतिक महत्व के हैं तीनों द्वीप
  • प्रोजेक्ट न छिने इसके लिए चीन ने श्रीलंका पर खूब बनाया दबाव, पाक को भी लगाया लेकिन नहीं गली दाल

नई दिल्ली
चीन काफी वक्त से इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के नाम पर छोटे-छोटे देशों को कर्ज के जाल में फंसा उन्हें एक तरह से अपने उपनिवेश में तब्दील करने की रणनीति पर चल रहा है। इसी रणनीति के तहत उसने भारत के पड़ोसी श्रीलंका को भी शिकंजे में ले रखा है। इतना ही नहीं, भारत के काफी करीब स्थित रणनीतिक तौर पर बेहद अहम श्रीलंका के तीन द्वीपों पर चीन हाइब्रिड एनर्जी सिस्टम प्रोजेक्ट बनाने वाला था लेकिन भारत के दबाव के बाद आखिरकार कोलंबों ने इस प्रोजेक्ट को रोक दिया है। इस प्रोजेक्ट के लिए चीन ने खूब पैंतरेबाजी की, यहां तक कि जब दाल गलती नहीं दिखी तो पाकिस्तान का भी इस्तेमाल किया लेकिन भारत की जबरदस्त कूटनीति के आगे उसकी एक न चली। पढ़िए पूरी इनसाइड स्टोरी।

जाफना प्रायद्वीप के पास श्रीलंका के 3 द्वीपों से चीन को दूर करने के लिए भारत तकरीबन एक साल से जुटा हुआ था। जनवरी 2021 में श्रीलंका में एक ऐलान से भारत हैरान रह जाता है। सिलोन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड ने फैसला किया था कि चीन की एक कंपनी सिनो सोर हाइब्रिड टेक्नॉलजी जाफना तट के नजदीक तीन द्वीपों पर ‘हाइब्रिड रीन्यूएबल एनर्जी सिस्टम’ बनाएगी।

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श्रीलंका के ये तीनों उत्तरी द्वीप डेल्फ्ट, नागादीपा और अनलथिवु जिस जगह पर हैं, वह उसे रणनीतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण बनाता है। ये द्वीप सुरक्षा के लिहाज से भारत के लिए काफी संवेदनशील हैं। लिहाजा यहां एनर्जी प्रोजेक्ट के नाम पर चीन की घुसपैठ की कोशिश से भारत के कान खड़े हो गए। नई दिल्ली ने इन प्रोजेक्ट्स के खिलाफ 2 आधारों पर आपत्ति दर्ज कराई। पहली यह कि यह पर्यावरण के लिहाज से ठीक नहीं है क्योंकि डीजल भी इस हाइब्रिड प्रोजेक्ट का हिस्सा था। दूसरा यह कि जिस चीनी कंपनी को ठेका दिया गया था वह सिर्फ नाम की प्राइवेट थी। हकीकत में उस पर चीन सरकार का पूरा नियंत्रण है।

भारत ने श्रीलंका में सत्ताधारी राजपक्षा परिवार पर दबाव बनाया। नई दिल्ली ने उसी सिस्टम को खुद बनाने की पेशकश की, वह भी बहुत कम लागत में। पर्यावरण के लिए पूरी तरह अनुकूल भी। चीनी प्रोजेक्ट एशियन डिवेलपमेंट बैंक (ABD) के लोन से बनना था। इसकी फंडिंग सपोर्टिंग इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई रिलायबिलिटी इम्प्रूवमेंट प्रोजेक्ट के तहत थी।

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भारत ने श्रीलंका के सामने यह भी पेशकश की कि प्रोजेक्ट पर आने वाले खर्च का एक बड़ा हिस्सा ग्रांट के तौर पर होगा। सिर्फ थोड़ा हिस्सा ही लोन के तौर पर होगा और वह भी आसान शर्तों पर। यह एक ऐसी पेशकश थी जिसे श्रीलंका के लिए ठुकरा पाना बहुत मुश्किल था।

भारत के इस ऑफर पर श्रीलंका सरकार ने शुरुआत में उत्साह दिखाया लेकिन बाद में एकदम चुप्पी साध ली। श्रीलंका सरकार पर जबरदस्त प्रभाव रखने वाले चीन ने प्रोजेक्ट से पीछे न हटने के लिए कोलंबो पर दबाव डालना शुरू कर दिया। साथ में यह समझाना भी कि कैसे यह प्रोजेक्ट किसी तरह का ‘कर्ज वाला जाल’ नहीं है। चीन ने श्रीलंका को बताया कि ये प्रोजेक्ट तो एडीबी का है, इसके लिए मल्टिलेटरल फंडिंग है। किसी भी तरह से ये ‘डेट ट्रैप’ यानी ‘कर्ज का जाल’ नहीं है।

प्रोजेक्ट को लेकर चीन ने श्रीलंका को जो घुट्टी पिलाई, उसका असर ये हुआ कि कोलंबो ने नई दिल्ली की पेशकश के साथ-साथ उसकी चिंताओं को भी नजरअंदाज करना शुरू कर दिया। श्रीलंका ने कहा कि चीन की टीम प्रोजेक्ट पूरा करके चली जाएगी।

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इसके बाद भारत ने भी यही पेशकश कर दी। वादा किया कि हमारी टीम भी वही करेगी। प्रोजेक्ट पूरा कर लौट आएगी। श्रीलंका तब भी नहीं माना। कहने लगा कि ये एडीबी का प्रोजेक्ट है और इससे पीछे हटना ठीक नहीं है। इसके बाद भारत ने एडीबी पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल श्रीलंका की हिचक को दूर करने के लिए किया।

4 महीने गुजर गए। इस बीच श्रीलंका में चीन के नए राजदूत की जेनहोंग ने राजपक्षा सरकार को एक कैबिनेट नोट लाने के लिए मना लिया। नोट में कहा गया कि भारत से कोई जवाबी प्रस्ताव नहीं मिला है लिहाजा चीनी प्रोजेक्ट ही आगे बढ़ना चाहिए।

जाहिर है कि यह सच नहीं था। भारत ने तुरंत अपने उस औपचारिक ऑफर को दिखाया जिसे महीनों पहले श्रीलंका के सामने पेश किया गया था। साथ में जोर देकर कहा कि भारत ने तो काउंटर प्रपोजल दिया ही था, श्रीलंका ही उस पर बैठा रहा। तबतक कोलंबो को भी समझ में आ गया कि इस मामले में भारत काफी गंभीर है।

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तकरीबन उसी समय सिलोन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड कोलंबो के नजदीक केरावेलपिटिया पावर प्लांट में अपनी 40 प्रतिशत हिस्सेदारी एक अमेरिकी कंपनी न्यू फोर्ट्रेस एनर्जी को बेचने पर राजी हो गया। चीन ने इस पर आपत्ति जताई।

अब चीन ने अपने दोस्त पाकिस्तान को भी उतार दिया। कोलंबों में पाकिस्तानी राजनयिक एक तरह से चीन के लिए लॉबिंग करने लगे। अपने प्रेस काउंसिलरों को द्वीप के नजदीक ‘छुट्टी’ पर भी भेजा।

भारत भी कहां हार मानने वाला था। पर्दे के पीछे कूटनीति का खेल चलता रहा। आखिरकार नवंबर में भारत राजपक्षा सरकार को समझाने में कामयाब हो गया। श्रीलंका के वित्त मंत्री बासिल राजपक्षा भारत के दौरे पर आए। उन्होंने नई दिल्ली को भरोसा दिया कि प्रोजेक्ट से चीन की छुट्टी होगी और अब इसे भारत बनाएगा। इस तरह भारत एक बड़ी कूटनीतिक जीत में कामयाब हुआ।

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चीन को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि वह श्रीलंका के 3 द्वीपों से जुड़े हाइब्रिड पावर प्रोजेक्ट को सस्पेंड कर रहा है। कोलंबो में चीनी दूतावास ने अपने ऑफिशल ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया कि किसी तीसरे पक्ष के ‘सुरक्षा चिंता’ की वजह से प्रोजेक्ट सस्पेंड करना पड़ा है। तीसरे पक्ष से साफ इशारा भारत की तरफ था। 29 नवंबर को उसने मालदीव सरकार से 12 द्वीपों पर सोलर पावर प्लांट बनाने का करार किया।



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