मेनकाओं को अब जाकर मिला न्याय

71


मेनकाओं को अब जाकर मिला न्याय

अर्चना शर्मा

मिथॉलजी एक ऐसा विषय है, जो बचपन में दादी-नानी की कहानियों से हमारे दिमाग में घर करता है और उम्र के साथ, समझ के अलग-अलग सोपानों से गुजरता है। शायद दुनिया की पहली कहानी मां, दादी, नानी, मौसी या बुआ के रूप में किसी महिला ने ही सुनाई होगी। महिलाओं का कहानियों, आस्थाओं, परंपराओं से एक सीधा सा संपर्क भारतीय परिप्रेक्ष्य में रहा है, हालांकि रचित ग्रंथों में पुरुषों का वर्चस्व है। अच्छी बात यह है कि आज के दौर में ऐसी अनेक महिलाएं हैं जो मिथॉलजी के क्षेत्र में लेखन कर रही हैं और आख्यानों को एक नए, ताजा नजरिए से प्रस्तुत कर रही हैं।

साई स्वरूप अय्यर ने अभया, अविशि, द्रौपदी, मौरी आदि महिला पात्रों पर आधारित सशक्त कहानियां लिखी हैं। उनका मानना है कि अंग्रेजी भाषा जेंडर्ड अवधारणा को थोपती है, जबकि हमारे ग्रंथों में ऐसा नहीं है। हमें सही अर्थ जानने के लिए मूलग्रंथ को बार-बार पढ़ना और समझना चाहिए। महाभारत की एक कहानी में जेंडर संतुलन को बखूबी दर्शाया गया है। वनपर्व में द्रौपदी की परिचारिकाओं में से एक उन्हें कुछ अपशब्द कहती है, जिसे सुन युधिष्ठिर काफी आहत होते हैं, लेकिन द्रौपदी मौन रहती हैं। अपनी व्यथा को युधिष्ठिर, ऋषि मार्कण्डेय के समक्ष रखते हैं। तब ऋषि मार्कण्डेय युधिष्ठिर को शांत कर दो सशक्त महिलाओं की कहानियां सुनाते हैं। एक सावित्री की और दूसरी सीता की।

एक और महिला मिथॉलजी लेखिका हैं कविता काणे। इन्होंने भी अपने अंदाज में आख्यानों को समझा और बरता है। कर्ण की पत्नी, मेनका, शूर्पणखा, सत्यवती, अहिल्या- ये महिलाएं जिन आख्यानों में उपेक्षित रही हैं, उन पर इन्होंने विस्तार से लिखा है। कविता काणे का मानना है कि पुराणों की प्रासंगिकता हर युग, हर काल में है। इनकी बेहतर समझ के लिए इनकी पुनर्व्याख्या बहुत जरूरी है। इसमें हमारी व्यक्तिगत समझ और सोच काफी प्रभावी होती है। लेखिकाओं में उन महिला पात्रों के प्रति संवेदनशीलता होती हैं, जिन्हें गौण या नगण्य माना जाता है जैसे कि रामायण में तारा, मंदोदरी हैं और महाभारत में कुंती, गांधारी।

हमारे ग्रंथों में अप्सराओं का खूब जिक्र मिलता है। अप्सराओं को हमेशा से देवताओं को सम्मोहित करने वाला माना जाता है, पर उन्हें कहानियों में खास स्थान नहीं मिलता। मेनका का चरित्र काफी दिलचस्प है। वैवाहिक बंधनों से परे वह एक मां है, जो दो बेटियों को जन्म देती है। उनकी कहानी में ऐसे कई पहलू हैं, जिनसे हम अनजान हैं। मिसाल के तौर पर, किस तरह से महिला एक पुरुष प्रधान समाज में कार्य करती है और अपनी स्वायत्तता भी बचाए रखती है। शूर्पणखा की कहानी लें तो उनके बिना रामायण की कथा की परिकल्पना मुश्किल है। उनके चरित्र में अच्छे और बुरे के प्रभाव से परे, महिला अहसासों पर जोर देने की ज्यादा जरूरत है। शकुंतला को कालिदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम में पीड़ित दर्शाया है, हालांकि मूल ग्रंथ के अनुसार शकुंतला एक साहसी, स्वतंत्र महिला थीं, जिन्होंने अकेले अपने बच्चे के उत्तरदायित्व को वहन करने का बीड़ा उठाया। वह जंगल के जीवन की परेशानियों से घबराए बिना एकाकी जीवन चुनती हैं।

हमारे सांस्कृतिक पटल में त्रिदेव की प्रधानता है, लेकिन त्रिदेवी को मात्र उनके साथी के रूप में देखा जाता है। ये त्रिदेवियां अपने आप में काफी सशक्त हैं, जिन्हें हम नकार नहीं सकते। पितृसत्तात्मक सोच ने इन कहानियों को दरकिनार किया है। जरूरी है कि अपनी सोच का विस्तार कर हम इन्हें एक व्यापक कैनवास पर देखें।

वाल्मीकि रामायण का अनुवाद करने वाली बहुचर्चित लेखिका, अनुवादक और शिक्षाविद अर्शिया सत्तर कहती हैं कि अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने के क्रम में अपनी ही किताब को वह बार-बार पढ़ती हैं और राम के चरित्र का हर बार एक नया आयाम उनके सामने आकर खड़ा हो जाता है। एक वनवासी राजकुमार से एक धर्मनिष्ठ राजा बनने का सफर उनके भीतर कितना कुछ बदलता है। स्वयं में हुए इस बदलाव की वजह से सीता पर लगे आरोपों की चिंता में उलझ उनके साथ पृथक व्यवहार करते हैं। सीता का चरित्र लें तो वह एक साहसी, स्वाभिमानी महिला हैं, जो युद्ध के बाद अपने उस कोमल मन, संवेदनशील पति को तलाशती हैं जो बरसों के वियोग में खो गया है। लक्ष्मण द्वारा वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में छोड़े जाने पर वह अपने पति के प्रति प्रेम का परित्याग कर एकाकी जीवन का वरण करती हैं। कहानी के अंत में भी बिना पति की ओर देखे वह धरती की गोद में समा जाती हैं और राम जो एक नायक, न्यायपालक राजा हैं, वह बिल्कुल अकेले रह जाते हैं। अर्शिया का कहना है कि मर्यादा का धर्म के साथ जुड़ाव प्रासंगिक है। वह काफी हद तक हमारे विभिन्न संबंधों पर निर्भर करता है। कौशल्या को इस प्रश्न से जूझना पड़ता है कि वह अपने रानी, मां या पत्नी में से किस रोल को चुनें।

आजकल ग्राफिक नॉवल का भी चलन हो चला है और इसमें इलस्ट्रेशन के जरिए कहानियों को समझाने की कोशिश होती है। अमृता पाटिल एक पेंटर, ग्राफिक उपन्यासकार हैं। उनकी उल्लेखनीय किताबें हैं- आदि पर्व: चर्निंग ऑफ द ओशन और अरण्यका। इनमें उन्होंने पौराणिक कहानियों को ग्राफिक्स के ज़रिए सुनाया है। अरण्यका में जंगल की कहानियां हैं, जो वैदिक काल और आज के समय में एक साम्य तलाशती हैं। इस कहानी में याज्ञवल्क्य और उनकी दो पत्नियों- कात्यायनी और मैत्रेयी हैं। जंगल के कानून ने किस तरह मनुष्य को शिकार करना, संग्रह करना और जियो और जीने दो का सिद्धांत सिखाया, वह इसमें देखने को मिलता है। जंगल में भटकते हुए कात्यायनी जंगल के घिनौने सच से रूबरू होती हैं। उन्हें अहसास होता है कि अरण्य को आपके जीवित या मृत होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

बहरहाल, अपनी परिपक्व सोच, समझ और संवेदनशीलता की सचाई के साथ मिथॉलजी पर लिखने वाली महिलाएं कई ऐसी कहानियां और सच उजागर कर रही हैं, जिनसे हम अनभिज्ञ रहे हैं।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





Source link