जब अम्मी ने कहा, मैं हिंदुस्तान और संगीत के बिना ज़िंदा नहीं रह सकती

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एक लम्हे को जो सुन लेते हैं नग़मा तेरा, फिर उन्हें रहती है जीने की तमन्ना बस.,.,.,.,.,.,ये बात बेगम अख्तर के ऊपर सौ फीसदी सही लगती है। कहते हैं बंटवारे के वक्त बेगम अख्तर ने पाकिस्तान जाने के नाम पर कहा था कि मैं हिंदुस्तान और संगीत के बिना जी नहीं सकती हूं।

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गजल शायर के दिल की आवाज है, हुस्न और इश्क का एक खूबसूरत मुरक्का है। अगर कोई ग़ज़ल गाने वाला उस हुस्न और इश्क के पैगाम को शामईन के दिल तक पहुंचाने में कामयाब है, तब और सिर्फ तभी उसे ग़ज़ल गाने का हक हैबेगम अख्तर

7 अक्टूबर 1914 फैजाबाद में मुश्तरी ने दो जुड़वा बेटियों को जन्म दिया। जौहरा और बीबी, बाप केवल नाममात्र के बाप थे, तो मां ने बेटियों को तालीम के लिए मिशन स्कूल भेजना शुरू कर दिया, बस यही भूल कर दी उस समाज में बेटियों को तालीम देना गुनाह समझा जाता था, दोनों बेटियों को एक दिन ज़हर देकर मारने की कोशिश हुई। बड़ी बेटी जोहरा की तो मौत हो गई लेकिन ‘बीबी’ जो बाद में बेगम अख्तर हुईं पूरी दुनियां आज उनकी दिवानी है।

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मैं तो उनके गाने में रास्ते में बैठ जाया करता था। स्कूल ही नहीं जाता था। मैं ये कहता हूं कि आज का ग़ज़ल गायक जो उनकी अंदाज में गाना गाएगा वो हिंदुस्तान का नहीं दुनियां का सरताज हो सकता है –  पंडित जसराज

अपने तमाम दर्द को अपनी आवाज में समेटने वाली बेगम अख्तर यानि कि ग़ज़ल की दुनियां की अम्मी का शौहरत जब शबाब पर था तो शादी के बाद इज्जत के नाम पर उन्हें सात साल अपनी आवाज को अपने अंदर ही समेट कर रहना पड़ा, जिससे वो बीमार रहने लगीं। कहते हैं उनके हालात में सुधार तभी हुआ जब डॉक्टर के कहने पर पति ने उन्हें फिर से मौशिकी की दुनियां में लौटने की इजाजत दी।

ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया, जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया….।

मेरे हम नफ़स मेरे हम नवा, मुझे दोस्त बनके दगा ना दे…..।

वो जो हम में तुम में करार था, तुम्हें याद हो या ना याद हो,,,,,,वही यानि वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि ना याद हो….।

मैं ढूंढता हूं जिसे वो जहां नहीं मिलता, नई ज़मीन नया आसमान नहीं मिलता….।

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मशहूर सरोद वादक अमजद अली खान ने इसी साल छपी अपनी किताब ‘Master on Masters‘ में बारह उस्तादों का ज़िक्र किया है। ये फेहरिस्त उन लोगों की है जिन्होंने हिंदुस्तान की क्लासिकल शैली में अपने योगदान से जान डाली है। वो लोग जो इंसान की कला के प्रति समझ की हद माने जाते हैं, जो आवाज़ और अंदाज़ की खूबसूरते के दस्तावेज़ हैं। इन बारह नामों में से एक नाम है – बेगम अख्तर का भी, जिनकी आज सालगिरह है।

क़िस्सा मुख़्तसर

अमजद अली खान अपनी किताब में लिखते हैं कि जब वो गाया करती थीं तो उनकी डेढ़ कैरेट के हीरे की नाक की कील, उनके चेहरे पर नूर बरपा कर देती थी। वो जब गाती थीं तो पूरा का पूरा ऑडिटोरियम एकटक उन्हें सुनता था। बेगम अख्तर का एक किस्सा साझा करते हुए उन्हें लिखा है। सत्तर के दशक में एक बार रेडियो कश्मीर ने उन्हें और बेगम अख़्तर को एक संगीत सम्मेलन में बुलाया गया। वो हॉल में पहुंचे तो पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था। स्टेज की परंपरा ये होती है कि बड़े कलाकार बाद में परफॉर्म करते हैं और छोटे पहले।

बकौल अमजद साहब, क्योंकि वो छोटे थे इसलिए उन्होंने बेग़म अख़्तर से कहा कि वो उन्हें शुरुआत करने दें। ये सुनते ही बेगम अख़्तर ने अपने कान पर हाथ लगाते हुए कहा. ‘ये गुस्ताखी मैं नहीं कर सकती’… उन्होंने काफी ज़िंद की लेकिन बेगम टस से मस नहीं हुई। उन्होंने कहा कि वो पहले गाएंगी। वो शायद उनके पुरखों का सम्मान कर रही थीं क्योंकि उनके पिता उस्ताद हाफ़िज़ अली खां बहुत बड़े सरोद वादक थे। जब रेडियो के कुछ अधिकारी उन्हें बुलाने आए तो अमजद अली खां तेज़ कदमों से स्टेज की तरफ चल पड़े लेकिन हैरानी की बात ये रही कि बेगम अख़्तर उनसे भी तेज़ कदमों से चलते हुए पहले स्टेज पहुंच गईं। ये उनका बड़प्पन था।

उनसे जुड़ी बातें

कला और साहित्य पर गहरी पैठ रखने वाले लव कुमार सिंह ने उनके बारे में काफी विस्तार से लिखा है। वो कहते हैं, बेगम अख्तर के बचपन का नाम बिब्बी था, छुटपन का अख्तरी, शोहरत पाने के बाद का नाम अख्तरी बाई फैजाबादी और निकाह के बाद का नाम बेगम अख्तर या इश्तियाक अख्तर था। बिब्बी यानी बेगम अख्तर, फैजाबाद के शादीशुदा वकील असगर हुसैन और एक गायिका और गायिका व तवायफ मुश्तरीबाई के प्रेम के फलस्वरूप सात अक्तूबर 1914 को इस दुनिया में आई थीं। वे अकेली नहीं आईं बल्कि अपने साथ जुड़वां बहन जोहरा को भी लाई थीं। चार साल की उम्र में दोनों बहनों ने कोई विषाक्त मिठाई खा ली। बिब्बी तो बच गई, मगर जोहरा को नहीं बचाया जा सका। इससे पहले असगर हुसैन ने भी दो बेटियां पैदा होने के बाद दूसरी बेगम के रूप में अपनाई मुश्तरीबाई को छोड़ दिया था। इस प्रकार बिब्बी और मुश्तरी इस दुनिया में संघर्ष करने के लिए अकेली रह गई थीं।

बिब्बी बहुत चुलबुले मिजाज की बच्ची थी। उसका पढ़ने-लिखने में ज्यादा मन नहीं लगता था। एक बार तो शरारत करते हुए उसने एक मास्टर की चोटी काट ली थी। मामूली पढ़ाई के बावजूद उर्दू शायरों और उनकी शायरी के बारे में उसने अच्छी जानकारी हासिल की थी। सात साल की कच्ची उम्र में ही बिब्बी ने गायिका बनने का फैसला कर लिया था और चंद्राबाई के थिएटर ग्रुप में शामिल हो गई थीं। हालांकि मां मुश्तरी इसके लिए राजी नहीं थी, मगर चाचा ने प्रेरित किया। इसी के साथ संगीत की तालीम का एक लंबा सफ़र शुरू हो गया। कई उस्तादों से सीखा मगर संगीत की तालीम का यह सफर कोई सुखद सफर नहीं था। सात साल की उम्र में बिब्बो के एक उस्ताद ने गायकी की बारीकियां सिखाने के बहाने उनकी पोशाक उठाकर अपना हाथ उनकी जांघ पर सरका दिया। इस प्रसंग के बहाने बताते चलें कि बेगम अख्तर पर किताब लिखने वाली रीता गांगुली ने एक जगह कहा है कि संगीत सीखने वाली करीब 200 लड़कियों से उन्होंने बात की और लगभग सभी ने अपने उस्तादों को लेकर इस प्रकार की शिकायत की।

15 साल की उम्र में अख्तरी बाई फैजाबादी के नाम से पहली बार मंच पर उतरीं और जैसे अपनी जिंदगी के सारे दर्द को आवाज के जरिये बाहर निकाल दिया। यह कार्यक्रम बिहार के भूकंप पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा करने के वास्ते कोलकाता में हुआ था। कार्यक्रम में भारत कोकिला सरोजनी नायडू भी मौजूद थीं। वे अख्तरी बाई के गायन से बहुत प्रभावित हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया। बाद में नायडू ने एक खादी की साड़ी भी उन्हें भेंट में भिजवाई। बेगम अख्तर की शिष्या रीता गांगुली पहले प्रदर्शन के वक्त उनकी उम्र 11 साल बताती हैं।

जब अख्तरी बाई गाती थीं तो उनकी आवाज में वो दर्द छलकता था जो सीधा सुनने वाले के दिल में उतर जाता था। उन्हें रूबरू सुनने वालों ने लिखा है कि श्रोताओं में से अनेक की आंखें नम हो जाती थीं। इस बात को लेकर भी काफी विवाद रहा है कि अख्तरी बाई यानी बेगम अख्तर तवायफ थीं या नहीं। बाकी लोग कुछ भी कहें मगर बेगम अख्तर की 73 साल की शिष्या और उन पर किताब लिख चुकी, उनके साथ रह चुकीं रीता गांगुली ने एक इंटरव्यू में इससे साफ इंकार किया है और साथ में यह भी बताया है कि मुंबई के तवायफ समाज ने अख्तरी बाई की मां मुश्तरी बाई से अपनी बेटी को उन्हें सौंपने का अनुरोध जरूर किया था और बदले में उस जमाने के हिसाब से भारी रकम के रूप में एक लाख रुपये देने का प्रस्ताव रखा था, मगर मुश्तरी और अख्तरीबाई, दोनों ने इस पेशकश को ठुकरा दिया था।

जैसे-जैसे शोहरत बढ़ती गई, अख्तरी बाई प्रशंसकों से तो घिरती गईं, मगर अंदर से अकेली होती गईं। अकेलेपन से वे बहुत घबराती थीं। बचपन की मुश्किल जिंदगी और किशोरावस्था की त्रासदी के कारण स्टेज पर गाने के बाद वे अपने होटल के कमरे में भी जाने से घबराती थीं, क्योंकि अकेला होते ही उन्हें अतीत की पीड़ा घेर लेती थी।

हां, वे अब ज्यादा सतर्क भी हो गई थीं। कई राजा-महाराजा उनका साथ पाने के लिए आगे पीछे घूमते थे, लेकिन वे उन्हें कोई छूट नहीं देती थीं। उन्होंने रामपुर के नवाब रजा अली खां का निकाह प्रस्ताव भी ठुकरा दिया था। उन्होंने अपने अकेलेपन का साथी बनाया सिगरेट और शराब को। गायकी पहले से ही उनकी साथी थी। इन साथियों को वह एक साथ भी रखती थीं या फिर किसी साथी का साथ छूटने पर दूसरे का साथ बढ़ा देती थीं। जैसे शराब उन्होंने तब ज्यादा कर दी जब परदे में रहने के दौरान गायन से उनका साथ छूट गया।

बेगम अख्तर को सिगरेट की तलब इतनी ज्यादा थी कि रमज़ान में वे केवल आठ या नौ रोज़े ही रख पाती थीं। वे चेन स्मोकर थीं। एक बार वे ट्रेन में सफर कर रही थीं। उस दौरान रात में एक स्टेशन पर गाड़ी रुकने पर जब उन्हें प्लेटफ़ॉर्म पर सिगरेट नहीं दिखाई दी तो उन्होंने गार्ड से सिगरेट मंगाने के लिए उसकी लालटेन और झंडा छीन लिया था। तब गार्ड उनके दिए सौ रुपये से सिगरेट का पैकेट लाया और उसी के बाद ट्रेन स्टेशन से रुखसत हुई। सिगरेट के कारण ही बेगम अख्तर ने ‘पाकीज़ा’ फ़िल्म छह बार देखी थी। दरअसल सिगरेट पीने के लिए उन्हें सिनेमाहाल से बाहर जाना पड़ता था और वापस लौटने तक फिल्म आगे बढ़ चुकी होती थी। इस पर वे दोबारा फिल्म देखने जातीं और इस प्रकार पूरी फिल्म वे छह बार में देख सकीं। सिगरेट के कारण ही वह 60 साल की उम्र में लाखों प्रशंसकों को निराश करके इस दुनिया से रुखसत कर गईं।

देश के बंटवारे के समय बेगम अख्तर के पति इश्तियाक अहमद अब्बासी पाकिस्तान जाना चाहते थे। वे मुस्लिम लीग के तत्कालीन नेता खलीक उज्जमां के भांजे थे। लेकिन बेगम अख्तर ने उनसे कहा कि वह संगीत और हिंदुस्तान के बिना नहीं जी सकेंगी। अंततः अब्बासी ने भारत में ही रहने का फैसला किया।

गाना छोड़कर शायद बेगम अख्तर ने अपनी जान को छोड़ दिया था, इसीलिए वे बीमार रहने लगीं। उन्हें फेफड़े की बीमारी के साथ ही डिप्रेशन की समस्या भी थी। डिप्रेशन का कारण गायन छोड़ना तो था ही, प्रिय मां की मौत और संतान पैदा करने की कोशिश में बेगम अख्तर के गर्भ का छह बार गिरना भी था। डॉक्टरों ने सलाह दी कि गाने से बीमारी दूर हो सकती है। आखिर पति की रजामंदी के बाद 1949 में वे ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ से जुड़कर गायन की दुनिया में वापस आ गईं। उन्होंने न सिर्फ़ संगीत की दुनिया में वापस कदम रखा बल्कि हिंदी फ़िल्मों में गायन के साथ अभिनय भी शुरू कर दिया। नाटकों से उनका रिश्ता 20 के दशक और हिंदी फ़िल्मों से 30 के दशक में ही जुड़ गया था। अदाकारा के रूप में उनकी आखिरी पेशकश थी सत्यजीत रे की बंगाली फ़िल्म ‘जलसा घर’ जिसमें उन्होंने शास्त्रीय गायिका का किरदार निभाया था। उन्होंने करीब 400 रचनाओं को अपना स्वर दिया।