बंगाल में जन्मी, पंजाब में पढ़ीं और यूपी की बनीं सीएम, जानें पूरी कहानी

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बंगाल में जन्मी, पंजाब में पढ़ीं और यूपी की बनीं सीएम, जानें पूरी कहानी

बंगाल में जन्मी, पंजाब में पढ़ीं और यूपी की बनीं सीएम, जानें पूरी कहानी

लखनऊ
1962 का साल था। कांग्रेस में चंद्रभानु गुप्ता की लोकप्रियता बढ़ रही थी। जवाहरलाल नेहरू यह नहीं चाहते थे कि किसी का कद उनसे बड़ा हो। कांग्रेस ने कामराज अभियान शुरू किया। यह अभियान था कि अधिक उम्र के लोगों को पार्टी में पद छोड़ने होंगे। चंद्रभानु गुप्ता की सीएम पद छोड़ना पड़ा। केंद्र उनकी जगह किसी ऐसे को सीएम बनाना चाहती थी जिस पर कोई विवाद न हो क्योंकि चंद्रभानु का गुट नाराज था।

कांग्रेस ने अप्रत्याशित रूप से सुचेता कृपलानी को यूपी का सीएम बना दिया। वह प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। 2 अक्टूबर 1962 से 13 मार्च 1967 तक 3 साल 162 दिन की सीएम बनीं। सुचेता कानपुर विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुईं थीं और यूपी सरकार में कैबिनेट मंत्री थीं। उनके पास श्रम, सामुदायिक विकास और उद्योग मंत्रालय था। बाद में मुख्यमंत्री पद संभालते हुए उन्होंने एक कुशल प्रशासक और सक्षम आयोजक की अपनी क्षमता साबित की।

जब कर्मचारियों को झुकना पड़ा
सुचेता कृपलानी के कुशल प्रशासन को लेकर एक किस्सा प्रचलित है। मुख्यमंत्री काल में राज्य के कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी थी। यह हड़ताल 62 दिनों तक चली थी। हड़ताली कर्मचारियों की मांग थी कि उनके वेतन में वृद्धि की जाए। लेकिन कृपलाणी टस से मस नहीं हुईं। सियासत हमले हो रहे थे, अपनी पार्टी के लोग उनके ऊपर सवाल उठा रहे थे लेकिन जब कर्मचारियों ने अपनी हड़ताल वापस ली और समझौता करने को राजी हुए तभी उनकी मांगों को सुचेता ने स्वीकार किया।

20 साल उम्र में बड़े जेबी कृपलानी से की शादी
25 जून, 1908 को उनका जन्म बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका पालन पोषण पंजाब में हुआ। उनके पिता एसएन मजूमदार सरकारी डॉक्टर थे। छात्र जीवन में सुचेता मेधावी छात्रा थीं। उन्होंने नई दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज से अपना हायर एजुकेशन पूरा किया। सेंट स्टीफंस कॉलेज से हायर स्टडी की। उसके बाद वह बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) में संवैधानिक इतिहास की लेक्चरर बन गईं। कहा जाता है कि उन्हें लाहौर यूनिवर्सिटी में ज्यादा वेतन पर नौकरी मिल रही थी लेकिन उन्होंने बीएचयू इसलिए चुना क्योंकि यहां के छात्र देश सेवा में रुचि लेते थे।

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28 साल की सुचेता मजूमदार की मुलाकात आचार्य जे.बी.कृपलाणी से हुई। उम्र में 20 साल बड़े जेबी कृपलानी से उन्होंने शादी कर ली। उनकी इस शादी का विरोध उनके परिवार और महात्मा गांधी ने किया। गांधी को लग रहा था कि जेबी कृपलानी ने शादी कर ली तो वह उनके आंदोलन से अलग हो जाएंगे लेकिन सुचेता ने खुद गांधी जी को यह कहकर मनाया कि वह निश्चिंत रहें उन्हें जेबी कृपलानी के साथ एक और कर्मचारी मिल रहा है।

राजनीति में ऐसे हुआ प्रवेश
आचार्य कृपलाणी पक्के गांधीवादी थे। उन्होंने खुद गांधीजी से सुचेता को मिलवाया और उनको स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गईं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अरुणा आसफ अली और अन्य महिला नेताओं के साथ उन्होंने आगे आकर मोर्चा संभाला। वह कांग्रेस पार्टी की महिला मोर्चा की पहली अध्यक्ष बन गईं।

हमेशा साइनाइड लेकर जाती थीं नोआखली
सुचेता के राजनीतिक समर्पण को देखकर गांधीजी काफी प्रभावित हुए। उनके समर्पण को देखते हुए गांधीजी ने 1946 में कस्तूरबा गांधी नैशनल मेमोरियल ट्रस्ट की आयोजक सचिव नियुक्त होने में उनकी मदद की। उसी साल नोआखली (अब बांग्लादेश) में भयंकर सांप्रदायिक दंगे फैल गए। गांधीजी और आचार्य कृपलाणी के साथ उन्होंने दंगा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया। उन्होंने वहां नरसंहार के पीड़ितों की सेवा की। कहा जाता है कि यहां पर महिलाओं के साथ बहुत अत्याचार होते थे। ऐसे में सुचेता कृपलानी अपने साथ साइनाइड कैप्सूल लेकर चलती थीं। वह जब सीएम पद पर रहते समय भी यहां आईं तब भी हमेशा अपने साथ साइनाइड रखती थीं।

1949 में सुचेता कृपलाणी को संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रतिनिधि के तौर पर चुना गया। कुछ सालों बाद आचार्य कृपलाणी का पंडित नेहरू से किसी बात को लेकर मनमुटाव हो गया। उन्होंने कांग्रेस पार्टी को अलविदा कह दिया और एक नई राजनीतिक पार्टी का गठन किया। पार्टी का नाम कृषक मजदूर प्रजा पार्टी था। सुचेता कुछ समय के लिए इस पार्टी में शामिल हुईं और फिर वापस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में चली गईं।

1971 में राजनीति से लिया सन्यास, 1974 में निधन
1952 में कृषक मजदूर प्रजा पार्टी के टिकट पर देश में हुए पहले आम चुनाव में नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित हुईं। उन्होंने लघु उद्योग राज्यमंत्री का प्रभार संभाला। पांच साल बाद वे फिर एक बार इसी संसदीय क्षेत्र से संसद निर्वाचित हुईं। इस बार उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था। 1967 तक वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। 1967 में चौथे आमचुनाव में उन्होंने उत्तर प्रदेश के गोंडा से चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुईं। 1971 में उन्होंने सियासत को अलविदा कहने का फैसला लिया। 1 दिसंबर, 1974 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।

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