दलित पुजारी, दलित रसोइया.. गोरखनाथ की धरती पर योगी आदित्यनाथ से लड़ने क्यों पहुंचे चंद्रशेखर आजाद?
गोरक्षधाम की धरती से ही सारी ऊर्जा हासिल करने वाले योगी को उनके ही किले में चंद्रशेखर आजाद कितनी टक्कर दे पाएंगे ये 10 मार्च को पता चलेगा। आजाद समाज पार्टी के गठन के दो साल पूरा होने से ठीक पांच दिन पहले। कांशीराम को आदर्श मानने वाले रावण ने उनकी जयंती पर 15 मार्च को ही पार्टी बनाई थी। जब 20 जनवरी को आजाद समाज पार्टी ने प्रेस रिलीज जारी किया तो लगा पश्चिमी यूपी की जिन 58 सीटों पर पहले फेज का चुनाव है उसके लिए कुछ उम्मीदवार होंगे। पर तीन पंक्तियों के रिलीज में लिखा था रावण गोरखपुर से ताल ठोकेंगे। हालांकि रात तक 37 और कैंडिडेट फाइनल हो गए। अब रावण की चाह इस यूपी चुनाव से क्या होगी इसे पांच पॉइंट में समझते हैं
1.दलित वोट बैंक में सेंधमारी – अखिलेश यादव से बात नहीं बनने के बाद आजाद ने लखनऊ में दर्द साझा किया था। उन्होंने कहा कि पीठ में दर्द के बावजूद मैं दो दिनों में तीन बार मिला लेकिन उनको दलित नेता की जरूरत ही नहीं है। जैसे दलितों का वोट ऐसे ही मिल जाएगा। गौर कीजिएगा.. बकौल रावण सपा नेता ने कहा कि उनको दलित नेता नहीं चाहिए। अब ये तो राजनीति सिखाती है। आजाद समाज पार्टी के नेता का कद कांशीराम वाला तो है नहीं। और ये बात तो अखिलेश ने खुद ही बता दी कि कद के मुताबिक दो सीटों का ऑफर दिया था। रही बात दलितों के वोट की तो इसका बड़ा हिस्सा 2019 में भी मायावती को गया। कांशीराम को आगे कर मायावती के वोट बैंक में सेंध लगाने की रावण की कोशिश नाकाम रही है। हालांकि पार्टी उन्होंने 2020 में बनाई। आपको याद होगा आजाद बिहार पहुंचे थे पहली बार अपनी पार्टी लेकर। पप्पू यादव के साथ प्रगतिशील लोकतांत्रिक गठबंधन बनाया। कुछ हासिल नहीं हुआ। अब उत्तर प्रदेश की 21 प्रतिशत दलित आबादी उन पर यूपी चुनाव 2022 में कितना भरोसा करती है, इसका आकलन करना मुश्किल नहीं है।
2. मायावती को यूपी की राजनीति से बेदखल करना – नागरिकता संशोधन कानून (CAA) और जेएनयू देशद्रोही नारों के मुद्दो पर भाजपा को घेरने वाले रावण को पता है कि उनका राजनीतिक वजूद अब हिंदुत्व के विरोध में ही छिपा है। वैसे भी हिंदुत्व का दायरा हिंदू समाज में जाति के दायरे को तोड़ने वाला है जो सिर्फ जाति और रावण के संदर्भ में सिर्फ दलित पॉलिटिक्स करने वाले नेता के लिए बड़ा खतरा है। 2014 के बाद विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भाजपा का बढ़ता वोट प्रतिशत इस बात का गवाह है कि राम मंदिर, धारा 370 और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर प्रतिबद्ध रही पार्टी पिछड़ों के अलावा दलितों को बड़ी तादाद में अपने से जोड़ने में सफल रही है। ऐसे में उत्तर प्रदेश की 403 सीटों में लगभग 300 सीटों पर दलित वोट मायने रखते हैं। 2017 में अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित 84 सीटों में 74 पर भाजपा जीती और सिर्फ दो पर मायावती। चंद्रशेखर आजाद यहां कितने वोट अपने प्रत्याशियों के लिए खींच पाते हैं और किन मुद्दों पर खींच पाते हैं ये देखना दिलचस्प होगा। मायावती की निष्क्रियता से आजाद को एक खाली जगह जरूर दिख रही है।
3.सपा को नुकसान से अपना फायदा – अखिलेश यादव से बातचीत टूटने के बाद रावण ने उन्हें बड़ा भाई भी बताया और लपेटा भी। उन्होंने कहा कि हाथरस हो या कहीं और दलितों का उत्पीड़न हुआ है, समाजवादी पार्टी के मुखिया वहां नहीं पहुंचे। मतलब राजनीति घंटे भर में बदल गई। जिस अखिलेश के साथ वह भाजपा से लोहा लेने की योजना बने रहे थे वो दलितों के विलेन बना दिए गए। लेकिन यही भारतीय राजनीति की सच्चाई है। ऐसे में रावण की कोशिश होगी कि बसपा के फ्लोटर वोटर सपा की तरफ न जाएं। अब दिल्ली का रास्ता लखनऊ होकर जाता है, इसलिए एकाध प्रतिशत वोट भी आपको ओमप्रकाश राजभर, संजय निषाद होने का एहसास करा सकता है।
4. योगी से टक्कर लेकर केजरीवाल बनने की कोशिश – जब 2014 में अरविंद केजरीवाल ने पीएम मोदी से लोहा लिया तो संभावनाओं के अनुरूप वो हार गए। लेकिन पूरा देश जान गया। तब पॉलिटिक्स तो उनको दिल्ली की ही करनी थी। हारने के बावजूद अगले ही साल उन्होंने दिल्ली में भाजपा को बुरी मात दी। आज वो गोवा से लेकर पंजाब में ताल ठोक रहे हैं। यही कोशिश रावण की होगी। पश्चिमी यूपी में अपने घर को छोड़ पूर्वांचल में मुख्यमंत्री के खिलाफ उतरने से वो केजरीवाल की तरह का संदेश देना चाहते हैं। किसी भी नेता की कोशिश राजनीति में आगे का रास्ता देखने की होती है और यही रावण देख रहे हैं।
5. गोरखनाथ: दलित आस्था के केंद्र में चोट – ये चंद्रशेखर आजाद का मंसूबा हो सकता है। कितना सफल होंगे कहना मुश्किल है। क्योंकि जातीय समीकरणों के लिहाज से गोरखपुर सदर सीट पर दलित निर्णायक नहीं कहे जा सकते। आकलन के मुताबिक यहां के 4.5 लाख वोटरों में 95 हजार कायस्थ, 55 हजार ब्राह्मण हैं. क्षत्रिय, वैश्य, निषाद, यादव और दलित 25-25 हजार के आस-पास हैं। यहां तो 1989 से ही भगवा झंडा बुलंद रहा है। फिर रावण क्या करेंगे। निश्चित तौर पर अपने को अंबेडकराइट बताने वाले आजाद की कोशिश हिंदुत्व के अटूट गठबंधन को तोड़ने की होगी। ये बहुत मुश्किल है। उस शहर में जहां गोरखनाथ मंदिर है जिसके प्रधान पुजारी भी दलित हैं और प्रसाद बनाने वाले
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