क्या काला बंदर को देख जज ने सुनाया था रामजन्मभूमि का ताला खुलवाने का फैसला?
फ़ैज़ाबाद ज़िला अदालत 1 फ़रवरी 1986 को विवादित स्थल का ताला खोलने का आदेश नहीं देती तो ये विवाद इस क़दर विध्वंसक साबित नहीं होता. कारसेवकों पर गोलियाँ नहीं चलाई जातीं, देश भर में सांप्रदायिक माहौल नहीं बिगड़ता और आख़िरकार 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद नहीं ढहाई जाती.
पर द्वेष, घृणा, अविश्वास और हिंसा से लबालब भरे बाँध के गेट खोलने के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराया जाए– अनाम वकील उमेश चंद्र पांडेय को जिन्होंने ताला खोलने की अर्ज़ी दी, फ़ैज़ाबाद के जिला जज कृष्णमोहन पांडेय को जिन्होंने ताला खोलने का आदेश दिया, विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल को जिन्होंने बाबरी मस्जिद को हिंदुओं की ग़ुलामी का प्रतीक बता-बताकर लाखों कारसेवकों के मन में घृणा भरी, बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी को जो रथ लेकर निकल पड़े थे .
काला बंदर
वो काला बंदर ज़िम्मेदार है जो फ़ैज़ाबाद की ज़िला अदालत की छत पर फ़्लैग-पोस्ट पकड़ कर भूखा-प्यासा बैठा रहा और जिसकी ‘दैवीय प्रेरणा’ से प्रभावित होकर ज़िला जज कृष्णमोहन पांडेय ने बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का ताला खोलने का फ़ैसला लिखा
राम जन्मभूमि विवाद में काले बंदर की भूमिका का ज़िक्र ‘युद्ध में अयोध्या’ नाम की किताब में आया है. इसे अयोध्या विवाद की पाँच ऐतिहासिक तारीख़ों – मस्जिद में चुपचाप मूर्तियाँ रखना, मस्जिद-जन्मभूमि का ताला खोला जाना, राजीव गाँधी के दौर में मंदिर का शिलान्यास, मुलायम सिंह यादव की सरकार के दौरान कारसेवकों पर गोली चलाने की घटना और उसके बाद 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद का ध्वंस।
फैजाबाद के तब के जिला जज कृष्णमोहन पांडेय ने बात-बात में खुद ही यह भेद खोला.पांडेय जी साल 1991 में छपी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं-“जिस रोज मैं ताला खोलने का आदेश लिख रहा था, मेरी अदालत की छत पर एक काला बंदर पूरे दिन फ्लैग पोस्ट को पकड़कर बैठा रहा. वे लोग जो फैसला सुनने के लिए अदालत आए थे, उस बंदर को फल और मूंगफली देते रहे, पर बंदर ने कुछ नहीं खाया. चुपचाप बैठा रहा.
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मेरे आदेश सुनाने के बाद ही वह वहां से गया. फैसले के बाद जब डी.एम. और एस.एस.पी. मुझे मेरे घर पहुंचाने गए, तो मैंने उस बंदर को अपने घर के बरामदे में बैठा पाया. मुझे आश्चर्य हुआ. मैंने उसे प्रणाम किया. वह कोई दैवीय ताकत थी.”इसी भक्ति-भावना से अभिभूत हो जज साहब ने ताला खोलने का फैसला लिखा. याचिकाकर्ता उमेश चंद्र पांडेय बताते हैं उत्तेजना में उस रात वे सो नहीं सके थे. सारी रात उन्होंने जन्मस्थान में कीर्तन करते हुए गुजारा, दूसरे दिन सुबह वे घर जा पाए.
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