ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करें. भारत में लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली का आरंभ पूर्व वैदिक काल से ही हो गया था. प्राचीनकाल से ही भारत में सुदृढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्था विद्यमान थी. इसके साक्ष्य प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों से प्राप्त होते हैं.
ऐसा कहना किसी भी लिहाजे से गलत नहीं होगा कि लोकतंत्र का सिद्धांत वेदों की ही देन हैं. सभा और समिति का उल्लेख ऋग्वेद एवं अर्थवेद दोनों में मिलता हैं. जिसमें राजा, मंत्री और विद्वानों से विचार विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला लेता था. जिसके माध्यम से पता चलता है कि उस समय भी राजनीती कितनी ठोस हुआ करती थी. क्योंकि सभा एंव समिति के निर्णयों को लोग आपस में अच्छे दृष्टिकोण से निपटाते थे.
इंद्र का चयन भी वैदिक काल में इन्हीं समितियों के कारण ही होता था. उस समय इंद्र एक पद हुआ करता था जिसे राजाओं का रजा कहा जाता था. गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में 9 बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है. वैदिक काल के पतन के बाद राजतंत्रों का उदय हुआ और वही लंबे समय तक शासक रहे.
क्या आप जानते हैं कि आधुनिक संसदीय लोकतंत्र के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य जैसे की बहुमत द्वारा निर्णय लेना पहले से ही प्रचलित थे. उस समय भी बहुमत से निर्णय लिए जाते थे और अगर वह जनता के विरोध में होता था, तो उस फैसले को रद्द कर दिया जाता था. वैदिक काल में छोटे गणराज्यों का वर्णन काफी होता है. जिसमें जनता एक साथ मिलकर शासन से सम्बंधित प्रश्नों पर विचार करती थी.
गणराज्य को प्राचीनकाल में प्रजातांत्रिक प्रणाली के रूप में परिभाषित किया जाता था. आत्रेय ब्राह्मण, पाणिनि के अष्टाध्यायी, कौटिल्य के अर्थशास्त्र महाभारत, अशोक स्तम्भों के शिलालेखों समकालीन इतिहासकारों तथा बौद्ध एवं जैन विद्वानों द्वारा रचित ग्रन्थों में तथा मनुस्मृति में इसके पर्याप्त ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं.
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महाभारत के शांति पर्व में `संसद´ नामक एक सभा का उल्लेख भी मिलता है क्योंकि इसमें आम जनता के लोग होते थे, इसे जन सदन भी कहा जाता था. अगर बौध काल की बात करें तो उस समय भी लोकतंत्र व्यवस्था थी. लिच्छवी, वैशाली, मल्लक, मदक, कम्बोज आदि जैसे गंणतंत्र संघ लोकतांत्रिक व्यवस्था के उदाहरण हैं.