जनता यानी ‘टेकन फॉर ग्रांटेड’!

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दिसंबर का तीसरा हफ्ता गुजर रहा है, लेकिन अभी तक कहीं से भी कोहरे के चलते ट्रेनों की लेट-लतीफी या नोएडा-आगरा के बीच बने ताज एक्सप्रेस हाईवे अथवा लखनऊ-आगरा सुपर एक्सप्रेस वे पर गाड़ियों के भिड़ंत की ख़बरें नहीं आईं. मगर यह कोई सरकार की बहबूदी नहीं बल्कि प्रकृति की कृपा है. ट्रेनें तो सामान्य दिनों में भी लेट चलती हैं कोहरे में कल आने वाली ट्रेन आज आए तो भी अचरज नहीं करना चाहिए. हमारे देश की जनता इसकी आदी हो चुकी है और सरकारें इसे ‘टेकन फॉर ग्रांटेड’ ले रही हैं. इतने साफ़ मौसम में भी भोपाल से आने वाली हमारी ट्रेन 12155 मंगलवार (18 दिसंबर) की सुबह जब दिल्ली के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर बीस मिनट लेट आई, तो मैंने रेल अफसरों से शिकायत दर्ज करने के लिए पुस्तिका मांगी. वे मेरा चेहरा यूँ देखने लगे, मानो मैंने कोई अपराध कर दिया हो. बोले 20-30 मिनट देरी से आई ट्रेन को लेट नहीं कहते. जबकि यह ट्रेन पन्क्चुअलिटी के मामले अव्वल मानी जाती है.

और यह कोई एक या दो दिन का मामला नहीं बल्कि पता चला कि अपने निर्धारित आगमन समय सुबह आठ बजे तो यह ट्रेन कभी स्टेशन पर आकर लगी ही नहीं. अब जैसे-जैसे जाड़ा बढ़ेगा, ट्रेनें निरंतर लेट होंगी और हम ऊपर वाले की मार समझ कर प्रकृति की इस माया से निपटने की कोशिश कभी नहीं करेंगे. रेलवे भी इस पर चुप साध लेगी. ऐसा नहीं कि ऐसा सिर्फ 18 दिसंबर को ही हुआ. ट्रेन में आन लाइन टिकट चार्ट बनाने के बाद कैंसिल कराने पर एक टीडीआर फॉर्म भरना पड़ता है और उसे भरने के लगभग छह महीने बाद किराया आपे एकाउंट में वापस जाएगा, वह भी तब जब रेलवे मान लेगा कि ट्रेन वाकई तीन घंटे से ज्यादा लेट थी. मगर हड़बड़ी में कोई रेल यात्री इतनी दूर की सोच नहीं पाता और मन मसोस कर रह जाता है. सवाल यह है कि आखिर कब हम प्रकृति की इन विषमताओं के साथ जीना सीख लेंगे.

Indian People treat as taken for granted 1 news4social -

दुनिया में एक देश नार्वे है जो उत्तरी ध्रुव के काफी करीब है. वहां छह महीने सूरज उगा रहता है और छह महीने डूबा. लेकिन वहां का कोई काम प्रकृति की इस निष्ठुरता के कारण नहीं रुका. नार्वे के लोगों ने घने अँधेरे में काम करना सीख लिया है और खूब उजाले में सोना. नार्वे में राजशाही है लेकिन वहां के लोगों के पास किसी भी एशियाई देश से अधिक जनतान्त्रिक अधिकार हैं और इस देश में लोक कल्याण के नियम सबसे उन्नत हैं. और अकेले नार्वे में ही नहीं उत्तरी ध्रुव के निकट स्थित सारे योरोपीय देशों का यही हाल है. वहां भारी कोहरे के बावजूद ट्रेनें लेट नहीं होतीं और न फ्लाईट के समय में बाधा पहुँचती है. रात को खूब बर्फ गिरी और सुबह दफ्तर जाने के समय परिवहन सुगम होता है. लेकिन यह कितना दुखद है कि हमारे देश में ऐसी कोई तकनीक विकसित नहीं की गई ताकि हम प्रकृति की मार से बच सकें. हर साल जब कोहरा छाता है तब मीडिया में चर्चा होती है और जब कोहरा तब सब चुप हो जाते हैं. इस तरह से किसी समस्या से कैसे निपटा जा सकता है.

भारत में सार्वजनिक परिवहन के मामले में ट्रेन सबसे बड़ा सहारा है. हज़ारों लोग हर रोज ट्रेनों से ही अपने गंतव्य तक जाते हैं, यहाँ तक कि कुछ लोग दूसरे शहरों में पड़ने वाले अपने दफ्तरों के लिए भी ट्रेन का सहारा लेते हैं. दिल्ली से मेरठ, अलीगढ़, सोनीपत, पानीपत तथा रेवाड़ी आने-जाने वाले ट्रेन से ही यह सफ़र तय करते हैं. ऐसा एनी बड़े शहरों के मामले में भी है. जब ट्रेन सबसे सुगम और सबसे अधिक उपयोगी जरिया है तो क्यों नहीं ट्रेन रूट को ऐसा बना दिया जाता कि आवा-जाही में कोई समस्या नहीं हो. कोहरे में भी निर्बाध चलने के लिए रेल पटरियों में ऐसे संकेतक लगाए जाते कि वे खतरे को बता सकें. इसके अलावा रेल इंजिन की हेड लाईट ऐसी बनाई जाती कि वह घने कोहरे को भी चीर सके.

यह अकेले रेलवे का हाल नहीं है बल्कि सड़क मार्ग की हालत और ख़राब है. उत्तर भारत के सारे हाई वे पर कोहरे के दिनों में रोज़ ही एक्सीडेंट होते हैं, पर किसी ने कभी इसे न होने देने के लिए नहीं सोचा. हर साल कोहरे में होने वाले हादसों की दो वजहें हैं. पहला तो यह कि ठंड के मौसम में हाई वे कोहरे से घिर जाते हैं, खासकर उन स्थानों में जहाँ नदी आसपास होती है और दूसरे हाई वे चूँकि आसपास बस्ती से दूर होते हैं इसलिए वहां कोहरा घना होता है. सड़क और रेल की तरह हवाई जहाज का आवागमन भी बाधित होता है. अगर हर साल यही हाल रहेगा तो कैसे देश में सुगम परिवहन को भला कैसे विकसित किया जाएगा!