जानें होली में कबीरा क्यों बोला जाता है ? इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई

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होली 2020
होली 2020

होली का त्यौहार ऐसा त्यौहार है ,जिसका हर कोई इंतजार करता है, होली के त्यौहार को हम सब पुराने मनमुटाव को भूलाकर आपस में एक-दूसरे को रंग लगाकर उल्लास के साथ मनाते हैं. लेकिन आज जो हम बात करने वाले हैं वो इसी त्यौहार पर एक खास प्रथा है, जिसमें एक लोक गीत गाया जाता है. जो आपने सुना ही होगा इसके कुछ बोल हैं.कबीरा स र र र…. इस लोक गीत में काफी अश्लिल शब्दों का प्रयोग किया गया है. आज हम आपको बताएंगें कि ऐसा क्यों बोला जाता है तथा इसकी शुरूआत कब और कैसे हुई.

इसके साथ ही ये भी बता दें कि कबीरा की शुरुआत का वाक्य ही कबीरा सर र र र से होता था और अंत भी उसी से ! हो सकता है कि इसका कारण ये भी रहा हो कि कबीर जी की उद्धतता ,साफगोई और बेलौस बोलने के गुणों के चलते इस लोक पर्व के गीत को कबीर के नाम पर रख दिया गया ! कबीर जी बिना किसी संकोच के अपनी बात रखते थे.कबीर जी ने अपने विचारों को बिना समाज की फिक्र किए बेबाक होकर समाज को रस्ता दिखाया. इस पर्व में भी अर र र र कबीर , सर र र र कबीर जो लोक गीत है उसमें भी लोग खुलकर गायन करते हैं. अगर वो गालियां देते हैं तो भी , उनको इस बात की फिक्र नहीं होती की समाज उनके बारे में क्या सोचेगा इस पर ध्यान ना देते हुए मस्त होकर उत्सव मनाते हैं. इसका तो स्पष्ट रूप से कोई समय नहीं है कि ये शब्द कब से शुरू किया गया. लेकिन हम मान सकते हैं कि इसकी शुरूआत मध्ययुग में हुई.

होली 2020
होली


मध्ययुग में धर्माचार्यों ने वसन्तोत्सव को सात्विक रूप भी दिया लेकिन ये उतना लोकप्रिय नहीं हुआ. संतों ने होली पर शिष्ट गीत भी लिखे लेकिन वो इतने प्रचलित नहीं हो पाए. उनमें से 5-10 ही चलन में होंगे. गंवार से गंवार तक स्वयंभू कवि बन जाते हैं. पता नहीं कहा से लोगों की जिह्वा पर सरस्वती आ बैठती है. जिसको भी देखें वहीं मतवाला होकर बेलगाम गालियां गाए जा रहा है.अर र र र कबीर , सर र र र कबीर , घर र र र को मानिद दी. ( नागार्जुन की बम भोलेनाथ से लिया गया)

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फाल्गुन पूर्णिमा को होली के नाम पर आज हम जो त्यौहार मनाते हैं वो वास्तव में वसन्तोत्सव का ही बदला हुआ रूप है. होली या होरी का शब्द उत्सव के रूप में ज्यादा पुराना नहीं है. 5 वीं शताब्दी से पहले का तो बिल्कुल भी नहीं. उसके बाद ही होलिका , होली , होला , होरो के समानार्थी शब्द प्राचीन साहित्य में यहां वहां मिलते हैं. ये भी हो सकता है कि वर्ष समाप्ति के दिन पुरानी होरो ( होली या होलिका ) जलाने की परंपरा पहले से रही हो तथा समय के साथ बाद में इसमें पह्लाद की बुआ ( होलिका या होला नाम की राक्षसी ) का नाम बाद में इस पर्व के साथ जोड़ा गया हो. इसके साथ ही इस अवसर पर मस्ती में लोगों के मुंह से अर र र कबीर, सर र र कबीर और हो हो हो रे , हो हो हो री ये शब्द निकलते हैं. इससे ये त्यौहार होरे और होरी के नाम से प्रख्यात हुआ. देहातों में इस पर बहुत बेलगाम होकर गालियां दी जाती हैं जिनका केंद्रबिंदु स्त्री रहती है. हो सकता है पहले युवतियां हो हो हो रे ! तथा नौजवान कहते होंगे हो हो हो री ! कहते होंगें. ( नागार्जुन की बम भोलेनाथ से लिया गया)

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