राफेल विवाद: देश का डिफेन्स सिस्टम प्राइवेट हाथों में देना कितना सही?

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2019 का लोकसभा चुनाव ख़त्म हो चुका है। राहुल गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष पद से हट चुके हैं। चुनाव से पहले राहुल गाँधी मोदी को राफेल डील पर घेरने की जोरदार कोशिश की थी। चुनाव प्रचार के दौरान भी राहुल गाँधी ने इस मुद्दे को खूब उठाया। बात यहाँ तक पहुंची की मोदी द्वारा खुद को चौकीदार कहे जाने पर राहुल गाँधी ने उन्हें चोर कर दिया। इस साल अगर कोई शब्द सबसे ज्यादा चर्चा में रहा है तो वह है ‘चौकीदार’

क्या है राफेल डील

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वायुसेना की ताकत को बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने फ़्रांस से राफेल विमान खरीदने का फैसला किया था। इस डील के बारें में पहले अटल विहारी वाजपेई की सरकार ने पहल की थी। लेकिन तब मामला ठीक नहीं बैठा। फिर UPA की सरकार आयी। तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटोनी इस डील पर हस्ताक्षर कर दिए। लेकिन दाम को लेकर इस पर बात नहीं बनी।

2014 में जब मोदी सरकार आयी तो तब सरकार ने दावा कि उसने UPA सरकार की तुलना में कम दामों में यह सौदा किया है। लेकिन बात इस पर तब बिगड़ी जब मोदी ने कथित तौर पर राफेल विमानों को रख रखाव के लिए सरकारी कंपनी HIL को दरकिनार कर उद्दमी अनिल अम्बानी की कंपनी रिलायंस को दे दिया।

राहुल गाँधी ने आरोप लगाया कि मोदी ने इसके लिए पैसा खाया है।

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आपको बता दें कि राहुल गांधी के हवाले से कहा गया था कि HIL कंपनी को राफेल से जुड़ा कॉन्ट्रैक्ट न देकर देश के साथ धोखा किया है। उन्होंने आरोप लगाया था कि मोदी के इस कदम से HIL गर्त में जा रही है और उसके कर्मचारी बेरोजगार हो रहे है।

राफेल डील से जुड़े तमाम खुलासे ‘द हिन्दू’ अख़बार ने किया था। ‘द हिन्दू’ के चीफ इन एडिटर एन राम ने इस बारे में कई लेख लिखे थे। उन्होंने बताया था कि PMO ने फ्रांस की दसौं कंपनी के साथ समानान्तर डील की। ‘द हिन्दू’ को जब इस खुलासे के लिए मंत्रियों और अन्य मीडिया हाउस के द्वारा खुलासे के सोर्स के बारें में घेरा गया तो उसने कहा कि यह सब खोजी पत्रकारिता के माध्यम से खोजा गया।

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मोदी सरकार पर आरोप लगता रहा है कि यह सरकार सरकारी संस्थाओं का निजीकरण करना चाहती है। इस बात से जोर मिलता है कि यह सरकार पूंजीवाद को बढ़ावा देना चाहती है। यह सर्वविदित है कि जहाँ पूंजीवाद हुआ वहाँ फिर लोकतंत्र का कोई आस्तित्व नहीं रह जाता है।

अगर राहुल गांधी का आरोप कुछ भी तथ्य रखता है तो क्या यह सही कि कोई सरकार अपने देश के रक्षातंत्र को किसी निजी हाथों में सौंप दें। खासकर भारत जैसी बढ़ती हुई अर्थव्यस्था में किसी भी सरकारी तंत्र को किसी निजी व्यक्ति के हाथों में नहीं देना चाहिए क्योकि सरकार खुद सक्षम है कि अपने सभी तंत्रो को आसानी से चला सके। भारत ने मंगल पर मंगलयान भेजे, चंद्रमा पर चंद्रयान भेजे, यह सब सरकारी पैसों से हुआ। जब इतने बड़े मिशन सरकारी पैसों से हो सकते हैं तो सेना के हथियार फिर सरकार क्यों नहीं खरीद सकती है।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अगर रक्षा विभाग से सम्बंधित किसी भी योजना को प्राइवेट यानि किसी निजी हाथ में दिया तो इससे भारत की संप्रभुता को खतरा होगा। राफेल डील पर ऐसा देखा गया कि एक-दो मीडिया हाउस को छोड़कर किसी ने इस पर ज्यादा कवरेज नहीं दी। सभी ने सरकार को इस पर बचाने की कोशिश की।

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इस दौरान भारतीय मीडिया दो गुटों में बंट गया। जो सरकार के पक्ष में था उसे ‘गोदी मीडिया’ कहा जाने लगा और जो सरकार के खिलाफ था उसे ‘दरबारी मीडिया’ कहा जाने लगा।

लोकतंत्र में मीडिया को एक सरकार और विपक्ष के अलावा तीसरा स्तम्भ माना गया है। इसीलिए मीडिया का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह सरकार की योजना की समीक्षा करें, जांचे और देश को बताये कि सरकार द्वारा किया जा रहा काम देशहित में है कि नहीं। मीडिया को यह भी नहीं देखना चाहिए कि उसका स्पांसर कौन है? अगर उनके स्पांसर पर कोई आरोप लगता है तो चैनल का कर्त्तव्य बनता है कि उसका बॉयकॉट करे।

हालांकि अब चुनाव बीत चुके है। राफेल मामला ठंडा पड़ चुका है। अब इस पर कोई भी सवाल नहीं उठाना चाहता है या यूँ कहें कि कोई इस पर बोलना नहीं चाहता है।