ज़ुल्म के किस पायदान पर पहुँच गयी है दुनिया

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आजकल व्हात्सप्प पर एक चुटकुला बहुत वायरल हो रही है, जिसमे लिखा है कि अब कहीं कोई घटना होती है तो लोग बीच बचाव कराने के बजाये विडियो बनाने लगते हैं. इस चुटकुले का एक और क्रूर चेहरा सामने आया है, जहां ये समझना मुश्किल है कि जो ज़ुल्म कर रहा है वो हैवान है या जिसपर ज़ुल्म हो रहा है वो जानवर है.

दरअसल आजकल इन्टरनेट पर एक विडियो चर्चा का विषय बना हुआ है. इस विडियो में एक लंगूर है और एक आदमी है. वो आदमी लंगूर को बड़े से बाँस के डंडे से लगातार मार रहा है. उसके इस ज़ुल्म पर जब वो जानवर आवाज़ कर रहा है तो वो उसे और मारता है. एक बेजुबान जानवर को ये निर्दयी इंसान ताकीद करता है कि वो चुप रहे. जब वो बार-बार पीटने पर भी चुप नही होता तो वो उसे और मारता है.

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दरिंदगी की ये हद यहीं तक सीमित नही है वो शख्स उस लंगूर को इतना मारता है कि वो अधमारा होकर बेहोश हो जाता है. मगर इसके बावजूद वो आदमी उसे मारता रहता है. विडियो देख कर लग रहा है कि उस लंगूर के पैर बांधे हुए हैं या फिर वो ज़ख्मी है.

इस विडियो को देखकर शायद आपका दिमाग कुछ देर के लिए सुन्न हो जाए. लेकिन इसे देखने के बाद सबसे पहला सवाल जो दिमाग में कौंधता है वो ये कि आख़िर इंसानियत कहाँ दफ्न हो चुकी है. क्यूँकी जब वो शख्स उस लंगूर को इतनी बेरहमी से मार रहा था तो वहां कई लोग मौजूद थे, मगर उन्हें उस जानवर को बचाने से ज़्यादा ज़रूरी विडियो बनाना लगा. सोचकर देखिये कि नज़ारा कितना पलट हो गया होता अगर उनमे से एक शख्स भी आगे आकर उस आदमी को रोक लेता, उसके हाथ से वो डंडा छीन लेता.

सवाल ये भी है कि ऐसे मौकों पर और इस तरह के अपराधियों के लिए पेटा(PETA) जैसी संस्थाएं कहाँ चली जाती हैं. अब क्यूँ नहीं मेनका गांधी जानवरों के अधिकारों के लिए सामने आती हैं? क्या उनके सवाल सिर्फ मिलिट्री के जानवरों और आवारा कुत्तों के लिए ही बचे हुए हैं ?

और ऐसा भी नहीं है कि लोग सिर्फ जानवर की पिटाई पर चुप थे. अब तो इंसानों के साथ भी यही होता है. व्हात्सप्प और फसबुक पर इंसानी कारनामो की ऐसी हज़ारों वीडियों मिल जाएंगी. लेकिन सवाल ये है कि चुप रहकर और इस तरह विडियो बनाकर हम ख़ुद के अगला शिकार होने की तैयारी नही कर रहे. अगर हम किसी के दर्द को मनोरंजन बना सकते हैं तो क्या कोई तीसरा आदमी ऐसे ही मनोरंजन की जुगाड़ में नही बैठा होगा?

लेकिन अब हम दिमागी तौर पर इतने कुंद [पड़ चुके हैं कि हम मनोरंजन और ज़ुल्म को भी एक ही श्रेणी में रखने लगे हैं. हमे एहसास भी नहीं है कि ये कुआं हम अपने ही लिए खोद रहे हैं जिसमे आने वाली हर पीढ़ी डूब मरेगी.