26 जुलाई को बिहार की राजनीति में जो उथल-पुथल मचा उसके नफा-नुकासन की बात तो दूरगामी है, लेकिन इतना तो जरूर है कि इससे शरद यादव का कद राजनीति में काफी बढ़ गया है। विपक्ष में उनकी पूछ बढ़ गई है। वो एक बार फिर से विपक्ष को एकजुट करने के प्रयास में भिड़ गए हैं। ठीक है, कि इस दौर में ऐसा होना नामुमकिन सा लग रहा है, लेकिन जिस तरह से वो कोशिश कर रहे हैं लोगों का ध्यान तो उनकी ओर है ही।
बिहार में इस गठबंधन का भले ही नीतीश कुमार को भविष्य में फायदा हो लेकिन देश की राजनीति में जनता उनसे एक सवाल तो पूछ ही रही है कि ये सब ही करना था तो सदभावना के नाम पर चार साल पहले बीजेपी से अलग क्यों हुए थे। नीतीश कुमार भले ही ये कहें कि ये सब भ्रष्टाचार को लेकर हुआ लेकिन जनता तो सवाल पूछेगी ही।
शरद यादव पार्टी पर दावा ठोक रहे हैं। उनका मानना है कि पार्टी उनकी है। उनके तेवर काफी सख्त हैं। उन्हें राजद और कांग्रेस का इसपर पूरजोर समर्थन भी मिल रहा है। शरद यादव ठहरे एक मंजे हुए राजनीतिज्ञ उन्हें मालूम है कि पार्टी में उनके कद को पहले से ही घटा दिया गया है और एनडीए में जाने के बाद तो नीतीश कुमार को मेरी कोई जरूरत ही नहीं होगी, इसलिए कुछ ऐसा किया जाए जिससे देश करे मुख्यधारा की राजनीति में फिर से लौटा जा सके और इसके लिए विपक्ष को एक करने की राजनीति से अच्छा कोई तरीका हो नहीं सकता है। शरद यादव बिल्कुल सही दिशा में जा रहे हैं उन्होंने ना केवल विपक्ष को एक करने की बात की है बल्कि देश की सांस्कृतिक एकता को बचाने की भी बात की है, दलित और अल्पसंख्यकों के हितों की भी बात कर रहे हैं। वैसे तो ऐसी बातें बहुत दिनों से हो रही है, लेकिन इसका ज्यादा फायदा उल्टे एनडीए को ही मिल रहा है। लेकिन देखते हैं इस बार शरद यादव क्या कुछ कर पाते हैं और विपक्ष की नैया को कहां तक पार लगा पाते हैं।