Swaminomics: बजट 2022 पर राजनीति रहेगी हावी, कड़े आर्थिक सुधारों की बजाय लोकलुभावन वादों पर रहेगा फोकस

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Swaminomics: बजट 2022 पर राजनीति रहेगी हावी, कड़े आर्थिक सुधारों की बजाय लोकलुभावन वादों पर रहेगा फोकस

नई दिल्ली
पिछले साल भारत को एक अर्थशास्त्रीय बजट (Economist’s Budget) मिला था। लेकिन इस बार बजट के तुरंत बाद पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव (Assembly Elections in 5 States) होने वाले हैं। इसलिए इस बार के बजट (Union Budget 2022) में कड़े आर्थिक सुधारों की संभावना नहीं है। एक “चुनावी बजट” आम तौर पर वह होता है, जो एक आम चुनाव से पहले आता है, लोकलुभावनवाद पर अधिक फोकस्ड होता है और कड़े सुधार कम होते हैं। लेकिन आगामी बजट भी एक तरह से चुनावी बजट होगा, जिसमें भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश सहित पांच चुनावी राज्यों में मतदाताओं को लुभाने पर ध्यान दिया जाएगा।

बीजेपी ने 2017 में यूपी राज्य के पिछले चुनाव में 75% से अधिक सीटों पर जीत हासिल की थी। इसने पॉपुलर वोट में से 39.67 फीसदी हासिल किए, जबकि सपा की झोली में 21.82% और बसपा की झोली में 22.23% ही गए। बीजेपी इस बार कई सीटें गंवा सकती है और फिर भी सत्ता में लौट सकती है। लेकिन एक संकीर्ण जीत मोदी के लिए एक बुरा परिणाम होगी, जिससे उनकी गति काफी धीमी हो जाएगी क्योंकि वह दो साल बाद होने वाले अगले आम चुनाव की तैयारी कर रहे हैं। कई कारकों ने पार्टी की संभावनाओं को प्रभावित किया है। स्वामी प्रसाद मौर्य के नेतृत्व में भाजपा के कई दिग्गजों का सपा में दलबदल, हवा में एक तिनका मात्र है। मुद्रास्फीति तो हमेशा पदधारियों के लिए बुरी रहती है। इस वक्त देश में खुदरा महंगाई 4.8% है, जबकि थोक महंगाई 13.5% है।

चुनावों के कारण ही सरकार कृषि कानूनों पर पीछे हटी
लाखों किसानों ने एक साल से अधिक समय तक अपने आंदोलन से दिल्ली को घेरे रखा, जिससे मोदी को तीन पूरी तरह से अच्छे सुधार कानूनों को रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा। अच्छा अर्थशास्त्र खराब राजनीति निकला। मोदी पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में 2021 के विधानसभा चुनावों के दौरान कृषि कानूनों पर अडिग रहे। लेकिन किसान आंदोलन का केंद्र पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में था, दोनों राज्य अब चुनावी मैदान में हैं। मोदी ने यूपी चुनाव हारने के जोखिम के बजाय, कृषि कानूनों पर अपना चेहरा खोना बेहतर समझा।

कहीं डेल्टा लहर की तबाही गड़बड़ा न दे गणित
2021 के राज्य चुनावों में कोविड के कारण हुई तबाही ने भाजपा को चोट नहीं पहुंचाई, लेकिन यह डेल्टा लहर आने से पहले की बात थी। डेल्टा लहर के कारण कई शवों को यूपी की नदियों के किनारे फेंक दिया गया था। ओमीक्रोन लहर अब तेजी हो रही है। इसमें राजनीतिक खतरे हैं जो स्वास्थ्य खतरों से कम नहीं हैं। दिसंबर तक अर्थव्यवस्था डेल्टा के झटके से तेजी से उबर रही थी, जिससे भाजपा का उत्साह बढ़ा। लेकिन ओमीक्रोन ने अब अर्थव्यवस्था को फिर से डुबाने की चेतावनी दी है। डेल्टा से बचने वाले छोटे व्यवसाय इस बार इसकी चपेट में आ सकते हैं। रोजगार जो उठा रहा था, फिर से गिर सकता है।

पिछले साल के बजट में प्राइवेटाइजेशन पर हुए थे अहम ऐलान
पिछले साल का बजट एक अर्थशास्त्रीय बजट था। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Nirmala Sitharaman) ने चार रणनीतिक क्षेत्रों को छोड़कर सभी सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की घोषणा की। कहा गया कि आईडीबीआई बैंक के अलावा, सार्वजनिक क्षेत्र के दो और बैंकों और एक बीमा कंपनी का निजीकरण किया जाएगा। नीति आयोग निजीकरण वाले अन्य उम्मीदवारों की एक सूची तैयार करेगा (जिन नामों का व्यापक रूप से उल्लेख किया गया है उनमें भेल, बीईएमएल, पवन हंस और नीलांचल इस्पात निगम शामिल हैं)। साथ ही 150 रूटों पर निजी यात्री ट्रेनों की नीलामी होगी। नेशनल मॉनेटाइजेशन पाइपलाइन की घोषणा हो चुकी है, जिसके तहत नए इंफ्रास्ट्रक्चर के वित्तपोषण के लिए पुराने इंफ्रास्ट्रक्चर एसेट्स को बेचकर 6 लाख करोड़ रुपये जुटाए जाएंगे।

बाद में, घाटे में चल रहीं बिजली वितरण कंपनियों के निजीकरण की घोषणा बिजली मंत्री आर के सिंह ने की। लेकिन यह पूरी सोच अब पटरी से उतर गई है। कृषि सुधारों पर सरकार के सरेंडर का अर्थ है सभी आर्थिक सुधारों से पीछे हटना। 2019 में नए कानून ने 29 साल पुराने श्रम कानूनों को चार नए लेबर कोड्स में समेकित किया, जो मामूली सुधार का गठन करते हैं। राष्ट्रपति ने नए कानून पर हस्ताक्षर किए, लेकिन यूपी चुनाव से पहले ट्रेड यूनियनों के हंगामे के डर से सरकार इसे अधिसूचित करने में घबरा रही है।

अभी मजदूर विरोधी के रूप में नहीं दिखना चाहती सरकार
जब यूपी सरकार ने बिजली वितरण के निजीकरण का प्रस्ताव रखा, तो उसके बिजली कर्मचारियों ने हड़ताल के साथ राज्य को बंद करने की धमकी दी। सरकार बड़ी चतुराई से पीछे हट गई। कई केंद्र शासित प्रदेशों में भी ऐसा ही हुआ। भाजपा राज्य चुनाव से पहले मजदूर विरोधी के रूप में नहीं दिखना चाहती। रेल यात्री मार्गों की नीलामी में ढेर सारी शर्तें और निष्पक्ष, स्वतंत्र नियामक की कमी रही, इसके कारण कोई बोली प्राप्त नहीं हुई। प्राइवेट कंपनियों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए रेल मंत्रालय पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है।

एयर इंडिया का बिक्री नहीं बन पाई ट्रेंड सेटर
एयर इंडिया का निजीकरण आखिरकार हो गया है लेकिन इसे ट्रेंड सेटर के रूप में नहीं देखा जा रहा है। एक छोटा सार्वजनिक उपक्रम सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, नंदलाल फाइनेंस एंड लीजिंग को 210 करोड़ रुपये में नीलामी में बेचा गया। इसे अदालत में चुनौती दी गई और सरकार ने मामले को आगे नहीं बढ़ाया। यह आगे तब तक नहीं बढ़ेगा, जब तक कि राज्य के चुनाव खत्म नहीं हो जाते। भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड के निजीकरण के प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है क्योंकि यह रक्षा उपकरणों का उत्पादन करता है, और विपक्षी दल इसके निजीकरण को भारत की सुरक्षा को खतरे में डालने के रूप में चित्रित करेंगे।

यही वह पृष्ठभूमि है, जिस पर 2022-23 का बजट पेश किया जाएगा। इसलिए, उम्मीद है कि बजट में सरकार कड़े आर्थिक सुधारों जैसे विवाद के क्षेत्रों से बचने की कोशिश करेगी। इसमें हर कल्पनीय वोट बैंक के लिए कल्याणकारी योजनाएं और नई परियोजनाएं होंगी, विशेष रूप से यूपी के मामले में। यह राजस्व और जीडीपी पर ओमीक्रोन और भविष्य के कोविड वेरिएंट के प्रभाव के बारे में आशावादी धारणा बनाएगा। यूपी में सहज जीत सुनिश्चित करने के लिए यह पर्याप्त नहीं हो सकता है, लेकिन बजट निश्चित रूप से कोशिश करेगा।

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