जानिए जगन्नाथ मंदिर में क्यों भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की आंखें फैली हुई है ?

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जगन्नाथ मंदिर

हिन्दुओं की प्राचीन और पवित्र मंदिर में से एक जगन्नाथ मंदिर का इतिहास काफी अनूठा है। जगन्नाथ मंदिर विष्णु के 8वें अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसी पवित्र नगरी पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर है।

आपने कभी सोचा है कि इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ यानि कृष्ण के साथ राधा साथ न होकर बलराम और सुभद्रा क्यों है तथा पुरी के मंदिर में भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की आंखें फैली हुई क्यों हैं? तो चलिए आज हम आपको इसके पीछे छिपे इतिहास का कारण बताते है।

जगन्नाथ रथ यात्रा

एक बार माता यशोदा , माता देवकी के साथ द्वारका पधारीं। वहां कृष्ण की रानियों ने माताओं से कृष्ण के बचपन की लीलाओं को सुनाने की बात कही उनके साथ बहन सुभद्रा भी उस वक़्त मौजूद थी। माता यशोदा ने कहा कि वह उन्हें कृष्ण तथा उनकी गोपियों की लीलाएं तो सुना देंगी पर ये कथा कृष्ण और बलराम के कानों तक नहीं पहुंचनी चाहिए। सुभद्रा द्वार पर पहरा देने के लिए तैयार हो गई। माता ने लीलाओं का गान शुरू किया।

भगवान की लीला के कथा सुनाने में सब इतने विलीन हो गए की अपनी सुध-बुध खो बैठे। सुभद्रा को भी पता नहीं चला कि कब भगवान श्री कृष्ण और बलराम वहां आ गए और उनके साथ ही कथा का आनन्द लेने लगे। बचपन की मधुर लीलाओं को सुनते – सुनते उनकी आंखें फैलने लगीं।

सुभद्रा की भी यही दशा हुई वह आनंदित हो कर कृष्णा की कथा में लीन होगई। उसी समय श्री नारदजी वहां पधारे। किसी के आने का अहसास होते ही कथा रुक गई। नारदजी भगवान संग बलराम और सुभद्रा के ऐसे रूप को देखकर मोहित हो गए।वह बोले, भगवन् ! आपका यह रूप बहुत सुंदर है ।आप इस रूप में सामान्य जन को भी दर्शन दे।तब भगवान कृष्ण ने कहा कि कलयुग में वह इस रूप में अवतरित होंगे।

जगन्नाथ पुरी में भगवान का यही रूप मौजूद है जिसमें वह अपने भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ हैं। परंतु यह स्वरुप भी आधा अधूरा सा क्यों है इसके पीछे भी एक पौराणिक कथा है।

जगन्नाथ मंदिर

इस मंदिर से जुड़ी यह पौराणिक कथा है कि भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को सपने में इस मूर्ति के दर्शन हुए थे। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा।

उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए।

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किंतु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बंद रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अंदर नहीं आसकते , माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झांका और वह वृद्ध कारीगर को पता चल गया और वह द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियां अभी पूरी नहीं हुई है।, उनके हाथ अभी नहीं बने थे।

राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब भगवान के इच्छा अनुसार हुआ है।यह मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गयीं और तब से विष्णु भगवान के इस स्वरुप को पूजे जाने लगा।