BJP के अंदर बवाना का विभीषण कौन?

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बवाना में बीजेपी की हार हुई, कहने को तो बड़े नेता इसकी समीक्षा कर रहे हैं, लेकिन सच तो ये है कि ये समीक्षा गुटबाजी के रूप में हो रही है। खबर है कि बवाना का सीट बीजेपी नेता और दिल्ली विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष विजेन्द्र गुप्ता के दाव-पेंच के कारण खाली हुआ, उन्होंने दिल्ली की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत दिखाने के लिए आम आदमी पार्टी के वेद प्रकाश को तोड़कर बवाना में चुनाव करवाया। लेकिन विजेन्द्र गुप्ता ये नहीं भांप पाए कि स्थानीय जनता और कार्यकर्ताओं में वेद प्रकाश के प्रति नाराजगी है, विजेन्द्र बाहवाही लूटने के चक्कर में उन्हें ही टिकट दे बैठे। और चुनाव प्रभारी बना दिया गया प्रवेश वर्मा को, अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित इस सीट पर उदितराज जैसे पिछड़ों के नेता को उतारना चाहिए था लेकिन ना तो ऐसा हुआ और शुरूआती दौर में ना ही भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने प्रचार को ज्यादा तवज्जो दिया हालांकि बाद में वो सक्रिय हुए लेकिन तब तक तो देर हो चुकी थी। जाट और झूग्गी-झोपड़ी बहुल इस क्षेत्र में बीजेपी उस नेता पर दाव लगा बैठी जिसने आम आदमी पार्टी को धोखा दिया। कहा जाता है कि इस चुनाव में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष की एक ना चली और उन्होंने अंत के कुछ दिनों में ही चुनाव प्रचार में सक्रियता दिखाई जिससे पूर्वांचली लोगों का भी पार्टी को साथ नहीं मिला। इस तरह से बवाना में बीजेपी के विभीषण के रूप में अलग-अलग नेताओं का नाम  लिया जा सकता है लेकिन असली विभीषण तो गुटबाजी को ही माना जाएगा।

बीजेपी के लिए दिल्ली दूर है

दरअसल जब से बीजेपी ने मनोज तिवारी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है तब से दिल्ली भाजापा में गुटबाजी तेज हो गई है। दिल्ली के स्थानीय नेताओं के भौंहे खींच गए हैं, खासकर एमसीडी चुनाव के बाद जिस तरह से बीजेपी में मनोज तिवारी की ताकत बढ़ी है उसे देखते हुए दिल्ली के नेताओं को लगने लगा है कि मनोज कहीं दिल्ली के अगले मुख्यमंत्री के दावेदार ना बन जाए। ऐसे में बीजेपी के दिग्गज अपनों का ही टांग खींचने में लग गए हैं। हर नेता अपने आप को अव्वल घोषित करने के होड़ में लगा हुआ है। लेकिन बड़ी बात ये है कि किसी भी नेता की छवि साफ नहीं है। विजय गोयल पर 2013 में दाव लगाने के बाद भाजपा को हाथ खींचना पड़ा और लाभ मिला हर्षवर्धन को पर उनके नेतृत्व में बीजेपी 23 सीटों पर सिमट गई। बात विजेन्द्र की करें तो वो पूर्व बीजेपी दिल्ली के अध्यक्ष रह चुके हैं और अब नेता प्रतिपक्ष जरूर हैं लेकिन उनमें ये माद्दा नहीं है कि वो मुख्यमंत्री के रूप में लोगों पर छाप छोड़ पाएं।

ऐसे में मनोज तिवारी के पास अवसर भी है और बड़ा पूर्वांचली वोट बैंक भी पर मनोज उसे कब तक संभाल पाते हैं, ये देखने वाली बात होगी। हालांकि इनकी दिक्कत ये है कि केंद्र में मंत्रीपद पर कायम विजय गोयल और हर्षवर्धन की महत्वकांक्षा अभी बाकी है, तो इन्हें तगड़े गुटबाजी से निपटना होगा। यही नहीं पूर्वांचली वोट बैंक और पहचान के कारण हो ना हो इन्हें स्थानीय कार्यकर्ताओं का साथ भी ना मिले, और स्थानीय मतदाता भी कार्यकर्ताओं के ऊपर ही दाव लगाते हैं। हां इन सब चीजों को मनोज अपने पक्ष में कर पाएंगे अगर पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उनके पक्ष में पूरी तरह से हो तो दिल्ली उनसे दूर नहीं होगी, जैसा कि अभी है।