भारतीय राजनीति में मुद्दे से भटकाने की प्रवृत्ति

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भारतीय राजनितिक परिदृश्य को अगर तर्क के नजरिये से देखा जाय तो जमीनी स्तर पर इसमें कुछ बदलाव होते हुए नजर आते हैं. 2014 में सत्ताविरोधी लहर या यूँ कहे की मोदी लहर पर बैठ कर प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने राजनीति के खेल का पूरा हिसाब ही बदल दिया है. चाहे वो सोशल मीडिया की कैम्पेनिंग हो या फिर अपनी ब्रांडिंग भाजपा का कोई दूसरा सानी नजर नही आता है. वैसे तो सोशल मीडिया प्लानिंग की शुरुआत लालकृष्ण आडवाणी के समय में ही हो गयी थी, लेकिन प्रोफेशनल लिहाज से इस काम का श्रेय नरेंद्र मोदी गठित भाजपा को ही जाता है. अमित शाह और नरेंद्र मोदी की इस जोड़ी का अभी की भारतीय राजनीति में कोई तोड़ शायद नही है.

लेकिन जिस तरह से लोगो के बीच में नरेटिव गढ़े जा रहे हैं, यह समझना आसान है की सभी पार्टियाँ मुद्दे से भटकाने की राजनीति को जोर दे रही हैं, फिर चाहे वो प्रधानमंत्री की किसान सम्मान निधि योजना हो या फिर कांग्रेस प्रस्तावित न्यूनतम आय योजना. दोनों का ही उद्देश्य जनता को सामूहिक घूस देना है. सवाल यह है कि क्या भारतीय राजनीति का परिदृश्य बदल गया है? क्या मतदाताओं को लुभाने का दाँव खेल कर ही सभी राजनितिक पार्टियाँ अपना उल्लू सीधा कर रही हैं?

Unemployment 3 -

असल में चाहे वो न्यूनतम आय योजना हो या फिर प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि दोनों का उद्देश्य मात्र एक से बढ़कर एक दावे करना है. भारतीय अर्थव्यस्था का स्वास्थ्य इतना खराब है कि ये योजनायें शायद ताबूत में कील साबित होंगी. भारत में लोकसभा चुनाव 2019 में सबसे अधिक युवा मतदाताओं की भागीदारी होगी और ऐसे में बेरोज़गारी और एजुकेशन जैसे मुद्दे ही सकारात्मक राजनीति की फिर से घर वापसी करवा सकते हैं. लेकिन प्रमुख पार्टियों का इस दिशा में न ही कोई दावा नजर आता है और न ही कोई रूचि. वैसे भी अगर इन सभी मुद्दों पर बात नही की जाएँगी तो असल में क्या बात किया जाय?

असल में चाहे वो युवाओं में बढती बेरोजगारी हो या फिर किसानो को उनके उत्पादों का उचित मूल्य न मिल पाना, असल मुद्दे यही है और इस तरफ बात करने की फुर्सत किसी भी राजनीतिक दल को नही है.

बेरोज़गारी के मुद्दे से राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भारतीय राजनीति की छलांग शायद नरेटिव गढ़ने का हथियार मात्र है, और जिस तरह से मतदाताओं को गुमराह करने की राजनीति हो रही है ये एक प्रकार की गिरावट ही है.

असल में लोकसभा चुनावों की तासीर अब बदल चुकी है, अब चुनाव राजनीतिक दल नहीं बल्कि उनके आईटी सेल कर रहे हैं. कौन सी पार्टी ज्यादा असल मुद्दों से गुमराह करती है, सारा ध्यान यही है. देखना होगा की अब मुद्दों से भटकाने में आईटी सेल सफल होते हैं या फिर मतदाता इनका खेल समझ पाती है.