UP Assembly Election 2022 : पिछड़े साथ तो जीत की बाजी लगेगी हाथ, यूपी में पर्दे के पीछे का खेल समझ‍िए

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UP Assembly Election 2022 : पिछड़े साथ तो जीत की बाजी लगेगी हाथ, यूपी में पर्दे के पीछे का खेल समझ‍िए

हाइलाइट्स

  • सबसे ज्यादा हैं ओबीसी वोटर, इस वजह से राजनीतिक दल की प्राथमिकता में
  • अहमियत के साथ ही तेजी से उभरा ओबीसी नेतृत्व, सहारे-सहारे बढ़ी बीजेपी
  • दलित और पिछड़ों को लामबंद करके सूबे की सत्‍ता में आए सपा और बसपा
  • उत्‍तर प्रदेश में चारों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के प्रदेश अध्यक्ष हैं ओबीसी

लखनऊ
इस समय बीजेपी में मची भगदड़ राजनीति का सबसे गरम मुद्दा है। यहां देखने वाली बात ये है कि बीजेपी छोड़कर जितने नेता सपा में जा रहे हैं, उनमें ज्यादातर पिछड़ा और अतिपिछड़ा वर्ग के हैं। पिछले चुनाव में इसके ठीक उलट इस वर्ग के ज्यादातर नेता दूसरी पार्टियां छोड़कर बीजेपी में शामिल हो रहे थे। पिछड़ों पर दांव लगाने की वजह भी साफ है कि प्रदेश में सबसे ज्यादा ओबीसी वोटर हैं। हालांकि ओबीसी की वास्तविक संख्या की गणना नहीं हुई है। इसको लेकर लगातार मांग उठती रही है लेकिन इन जातियों के नेता जो दावे करते हैं, उसके अनुसार 54% आबादी ओबीसी की है।

यही वजह है कि सभी पार्टियों की निगाह ओबीसी जातियों के वोटरों और नेताओं पर रहती है। भारतीय राजनीति के पिछले अनुभव भी बताते हैं कि जिस पार्टी ने ओबीसी के साथ अन्य जातियों की लामबंदी कर ली, उसकी राह आसान हो गई है।

चारों पार्टियों के प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी

  • बीजेपी : स्वतंत्र देव सिंह
  • सपा : नरेश उत्तम पटेल
  • कांग्रेस : अजय कुमार लल्लू
  • बीएसपी : भीम राजभर

पिछली विधान सभा में ओबीसी विधायक (2017 में जीते)

  • बीजेपी – 102
  • सपा – 12
  • बीएसपी – 5
  • अपना दल – 5
  • कांग्रेस – 2

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कालेलकर आयोग से मंडल कमिशन तक
देश की आजादी के समय से ही जातियों के राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने को लेकर एक लंब बहस चलती रही है। पिछड़ी जातियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति के आकलन के लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर की पहल पर काका कालेलकर आयोग बनाया गया था। आयोग की रिपोर्ट आ गई लेकिन तब रही कांग्रेस सरकार ने उसको लागू नहीं किया। उसके बाद चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाली जनता पार्टी ने भी यह मुद्दा उठाया था। तब कहा था कि हमारी सरकार बनी तो काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को लागू करेंगे। साथ ही उन्होंने ‘अजगर’ (अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत) का फॉर्म्युला देकर जातियों को लामबंद किया।

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हालांकि सरकार बनने पर उन्होंने काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट लागू नहीं की और एक नया आयोग बना दिया। इस नए बने मंडल आयोग ने भी ओबीसी आरक्षण को लेकर अपनी रिपोर्ट दे दी लेकिन वह भी लागू नहीं हो सकी। कांशीराम ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के लिए 1981 से आंदोलन शुरू किया और सरकारों पर दबाव बनाया। उन्होंने भी दलितों के साथ पिछड़ों को लामबंद करना शुरू किया। कांग्रेस से अलग हुए वीपी सिंह ने इसे लागू करने की बात कही। तब उनके साथ कई पिछड़े नेता जुड़ गए और मिलीजुली सरकार बनाई। उन्होंने इस रिपोर्ट को लागू कर दिया लेकिन तब तक बीजेपी ने राम मंदिर को लेकर हिंदुओं को एकजुट करने का आंदोलन शुरू कर दिया। वीपी सिंह सरकार गिर गई।

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‘पिछड़ों पर सब दलों की निगाहें’

भारतीय समाज का ताना-बना ही जातियों से बना है। ऐसे में जातियों की राजनीति होना स्वाभाविक है। जातीय आधार पर हमारे समाज में काफी असमानता भी रही है, जो अभी तक खत्म नहीं हुई। ऐसे में राजनीतिक दल यही देखते हैं कि किस जाति की संख्या कितनी ज्यादा है। ओबीसी का एक बड़ा वर्ग है। यही वजह है कि आजादी के समय से अब तक पिछड़ों पर सबकी निगाह रही है। जिसे कोई भी राजनीतिक दल उनको अपने साथ लेना चाहेगा। हालांकि किसी जाति से किसी राजनेता को कोई परहेज नहीं होता। उनकी कोशिश तो बड़े वर्ग को खुश करके ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल करने की होती है।

डॉ. महेश प्रसाद अहिरवार, प्रफेसर(एआईएच) बीएचयू

ओबीसी नेतृत्व के साथ बढ़ी बीजेपी
बीजेपी ने मंदिर आंदोलन जरूर शुरू किया लेकिन यूपी में कल्याण सिंह बीजेपी के बड़े नेता थे। वह भी ओबीसी ही थे। ओबीसी और हिंदुत्व के सहारे बीजेपी पहली बार 1991 में सत्ता में पहुंची। 1997 में वह दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। बीजपी ने बाद में उनको हटाकर राजनाथ सिंह और फिर राम प्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाया। उसके बाद भाजपा के पास 2017 तक बड़ा ओबीसी चेहरा नहीं रहा। उसे 14 साल वनवास भी काटना पड़ा।

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2017 का विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा गया। प्रदेश अध्यक्ष उस समय केशव प्रसाद मौर्य थे। दोनों ही ओबीसी चेहरे थे। साथ में बीजेपी का हिंदुत्व, विकास और राष्ट्रवाद का मुद्दा रहा। साथ ही दूसरे दलों से बोबीसी नेता और मंत्री भी इस चुनाव से पहले बीजेपी में शामिल हुए। बीजेपी ने हिंदुत्व के नारे के साथ गैर यादव ओबीसी को लामबंद किया। नतीजा बीजेपी फिर सत्ता में आ गई।

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‘दलों को नियंत्रित कर रहे हैं पिछड़े’

मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद ओबीसी जातियां भारतीय राजनीति में काफी प्रभावी तरीके से उभरकर सामने आई हैं। उत्तर भारत और खासकर यूपी बिहार में सामंती व्यवस्था के अवशेष बहुत गहराई से मौजूद हैं। इसमें जातिगत मूल्यों की प्रधानता खास तत्व है। इन दोनों कारकों को एक करके देख सकते हैं। ओबीसी जातियां अब क्षेत्रीय राजनीति में दबाव समूहों की भूमिका निभा रही हैं। एक हद तक वे राजनीतिक दलों को नियंत्रित कर रही हैं। छोटे-छोटे क्षेत्रीय गुट भी बनते जा रहे हैं। किसी खास इलाके में कुर्मी तो दूसरे इलाके में में राजभर, यादव या अन्य जातियों के गुट बन गए हैं। निश्चित तौर पर इनका प्रभाव राजनीति में देखने को मिल रहा है।

प्रफेसर पवन मिश्र, समाज शास्त्र विभाग, एलयू

सपा और बीएसपी ने किया लामबंद
सपा और बीएसपी भी ओबीसी को लामबंद करके ही सत्ता तक पहुंचीं। वीपी सिंह की सरकार गिरी तो मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी बनाई। उधर बीएसपी के तत्कालीन मुखिया कांशीराम से उन्होंने गठबंधन करके दलित और ओबीसी को लामबंद किया। हिंदुत्व की इतनी लहर के बावजूद बीजेपी को सत्ता से बाहर होना पड़ा। दोनों ने मिलकर सरकार बनाई और मुलायम सिंह दूसरी बार 1993 में मुख्यमंत्री बन गए। उसके बाद सपा यादव और मुस्लिम के साथ कुछ सवर्ण जातियों को साथ लेकर चुनाव जीतती रही। इसी तरह बीएसपी दलित, अतिपिछड़ा के फॉर्म्युले पर चुनाव जीतती रही। उसे 2007 में ब्राह्मणों का भी साथ मिल गया और पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।

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