UP Chunav: अखिलेश की गठबंधन सियासत पर पार्टी में उठ रहे सवाल- इन पार्टियों से सपा को लाभ क्या?

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UP Chunav: अखिलेश की गठबंधन सियासत पर पार्टी में उठ रहे सवाल- इन पार्टियों से सपा को लाभ क्या?

हाइलाइट्स

  • छोटे दलों से गठबंधन कर बड़ा राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने की कोशिश में अखिलेश
  • बड़े राजनीतिक दलों से गठबंधन के बाद भी वोट ट्रांसफर कराने में सफल नहीं हुई सपा
  • वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव व वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में दिखा है असर
  • छोटे राजनीतिक दलों को साध कर विपक्ष के वोटों का बिखराव रोकने की हो रही कोशिश

लखनऊ
यूपी की चुनावी राजनीति में वोटों का बंटवारा सबसे अहम मुद्दा रहा है। तमाम राजनीतिक दलों ने अपने वोट पॉकेट बना लिए हैं। इस वोट बैंक को बचाए रखने और उसको समृद्ध करने की कोशिश लगातार हो रही है। इसमें क्षेत्रीय दलों की भूमिका काफी अहम हो गई है। कांग्रेस विरोध और क्षेत्रीय जनाकांक्षा के परिणाम से जन्मे क्षेत्रीय दलों ने राज्यों में एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित किया। हालांकि, पिछले कुछ समय से इस प्रकार के ताकतवर क्षेत्रीय दलों के आधार में कमजोरी आ रही है।

क्षेत्रीय दलों का उभार भी देश में एक अलग प्रकार की राजनीतिक परिस्थिति का परिणाम रहा। इमरजेंसी के बाद देश में जनता पार्टी की सरकार बनी। जनता पार्टी में तमाम राज्यों से जुड़ने वाले नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का परिणाम पार्टी में टूट के रूप में सामने आता रहा। बाद के समय में क्षेत्रीय क्षत्रपों ने पार्टियां खड़ी कर एक वोट बैंक को अपने तरफ लाने में सफलता हासिल की। उत्तर प्रदेश की राजनीति को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है। इसमें समाजवादी पार्टी एक राजनीतिक पॉवर के रूप में प्रदेश में खुद को स्थापित कर चुकी है। हालांकि, वर्ष 2014 के बाद से घटती ताकत को बढ़ाने के लिए कोशिश खूब हुई, उसका परिणाम सामने नहीं आ पाया।

मुलायम की ‘कठोर’ छवि से निखरी थी सपा
5 दिसंबर 1989 को जनता दल की सरकार में मुख्यमंत्री बनने वाले मुलायम सिंह यादव ने अपने कार्यकाल में अयोध्या में कारसेवकों पर सख्ती के जरिए एक बड़ा वोटबैंक अपने नाम किया। 24 जनवरी 1991 को जब उनकी सरकार गिरी तो उन्होंने अपनी पार्टी खड़ी करने का निर्णय लिया। 4 अक्टूबर 1992 को समाजवादी पार्टी के गठन के एक बाद मुलायम एक बार फिर 5 दिसंबर 1993 को प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। तीन साल यह सरकार चली। इसके बाद समाजवादी पार्टी एक बार फिर 2003 में सत्ता में आई और मुलायम मुख्यमंत्री बने। वर्ष 2012 में सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और इस बार मुलायम के बेटे अखिलेश यादव ने प्रदेश की कमान संभाली।

जनाधार को बढ़ाने की कोशिश कर रही सपा
समाजवादी पार्टी अपने जनाधार को बढ़ाने का प्रयास कर रही है। हालांकि, पिछले चुनावों में उसको सफलता नहीं मिल पाई है। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद भी समाजवादी पार्टी वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के उभार को रोक पाने में नाकामयाब रही। पार्टी अपने आधार वोट बैंक में भी सेंधमारी से खुद को नहीं बचा सकी। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में इसका असर विधानसभा चुनाव में दिखा और पार्टी को सत्ता गंवानी पड़ी। हालांकि, उस समय अखिलेश यादव ने कांग्रेस के राहुल गांधी के साथ गठबंधन कर दो युवाओं की जोड़ी का नारा दे दिया। वहीं, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी ने विपरीत विचारधारा के बाद भी बहुजन समाज पार्टी के साथ चुनावी समझौता किया और यह कामयाब नहीं हो सका।

वोट बैंक से अधिक घट गई सीटें
समाजवादी पार्टी के लिए सबसे मुश्किल सीटों की संख्या में लगातार गिरावट रहा है। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव को देखें तो सपा को 29.15 फीसदी वोट मिले थे और सीटें आई थी 224। वर्ष 2007 में पार्टी को 25.43 फीसदी वोट और 97 सीटें मिली थीं। करीब चार फीसदी वोट बढ़ने के कारण 127 सीटों में बढ़ोत्तरी हो गई। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा का कांग्रेस के साथ गठबंधन था। इस कारण वोट शेयर पार्टी को 21.82 फीसदी मिले और सीट भी केवल 47। कांग्रेस 6.25 वोट शेयर और 7 सीटों के साथ प्रदेश में सिमटती नजर आई। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में 15 फीसदी वोट शेयर और 47 सीट लाने वाली भाजपा को केंद्र में मोदी सरकार का लाभ मिला और वर्ष 2017 के यूपी चुनाव में पार्टी ने 39.67 फीसदी वोट शेयर के साथ 312 सीटें जीत ली।

लोकसभा चुनाव के बाद घटते ट्रेंड पर नजर
लोकसभा चुनाव में पार्टियों को मिलने वाले वोट शेयर में गिरावट विधानसभा चुनाव में देखने को मिलती है। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में सपा को 23.26 फीसदी वोट शेयर के साथ 23 और भाजपा को 20.27 फीसदी वोट शेयर के साथ 15 सीटें मिली थी। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को पांच फीसदी वोट का नुकसान दिखा था। लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा को भाजपा 42.63 फीसदी वोट और 71 सीटें मिली थी। सपा को 22.35 फीसदी वोट और पांच सीटों से संतोष करना पड़ा। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को करीब तीन फीसदी वोट का नुकसान झेलना पड़ा था। हालांकि, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 49.98 फीसदी वोट के साथ 62 सीटें मिली हैं। वहीं, समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत घटकर 18.11 फीसदी पहुंच गया है। हालांकि, सीटें पार्टी को बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन के बाद भी वर्ष 2014 की तरह 5 ही रही।

वोट ट्रांसफर सबसे बड़ा मुद्दा
समाजवादी पार्टी के लिए वोट ट्रांसफर कराना सबसे बड़ा मुद्दा रहा है। बसपा के साथ गठबंधन के बाद माना जा रहा था कि बुआ-बबुआ की जोड़ी भाजपा को बड़ा नुकसान पहुंचाएगी। लेकिन, बसपा 19.43 फीसदी वोट शेयर के साथ 10 सीटें जीतने में कामयाब रही, जो वर्ष 2014 के चुनाव में शून्य पर सिमटी थी। मतलब, बसपा ने सपा के वोट शेयर को अपनी तरफ ट्रांसफर करा लिया। कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनाव 2017 में गठबंधन भी कामयाब नहीं रहा। कांग्रेस के परंपरागत वोट विभिन्न पॉकेट में बंट चुके हैं। वहीं, मुस्लिम व यादव के साथ कुछ अन्य तबकों के वोट को जोड़कर सत्ता की चाबी हासिल करने वाली सपा को अब अन्य वर्ग के वोट को समेटने में मुश्किल हो रही है।

रालोद व अन्य दलों से गठबंधन पर चर्चा
यूपी चुनाव को लेकर तमाम दल अब वोट बैंक के बिखराव को रोकने की कोशिश में हैं। हालांकि, इस बार के चुनाव में भाजपा को रोकने की बात मुद्दा नहीं है। यह वजह है कि विपक्ष में अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी, मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी और प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अपने चुनावी अभियान का आगाज कर चुकी है। दूसरी तरफ, मोदी-योगी लगातार अभियान चला रहे हैं। ऐसे में विपक्ष में बंटने वाले वोट के साथ-साथ भाजपा से बिखड़ने वाले वोट को भी समेटने की कोशिश की जा रही है। समाजवादी पार्टी इसमें बड़ी तैयारी कर रही है। हालांकि, इससे एक सवाल पार्टी के भीतर से ही आ रहा है कि जब बड़े दलों के वोट को पार्टी अपनी तरफ नहीं लाई तो इन छोटे दलों को साथ लाने से क्या फायदा मिलेगा?

ताकत बढ़ाने में मिल सकती है मदद
माना जा रहा है कि छोटे दलों के जरिए सपा अपनी ताकत बढ़ा सकती है। किसान आंदोलन के बाद से किसानों के बीच पनपे असंतोष को वोट में बदलने की कोशिश तमाम विपक्षी दल कर रहे हैं। भले ही कृषि कानून को रद्द करने की घोषणा पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से की गई हो, किसान अभी भी दिल्ली बॉर्डर पर हैं। राष्ट्रीय लोक दल को जोड़ अखिलेश की कोशिश इस वर्ग के वोट को भाजपा से खींच कर सपा की तरफ लाने की कोशिश कर रहे हैं।

वहीं, सुभासपा के ओम प्रकाश राजभर और अपना दल (कमेरावादी) की कृष्णा पटेल को अपने साथ लाकर दलित-पिछड़ा वोट बैंक को साधने की कोशिश हो रही है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी व अन्य दलों को जोड़कर वोटों के बंटवारे को रोकने का भी प्रयास सपा की तरफ हो रहा है। इसका असर चुनावी मैदान में एक सकरात्मक गठबंधन के रूप में दिख सकता है।

अखिलेश यादव लगातार छोटे दलों के साथ कर रहे हैं गठबंधन

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