शिक्षा लैश होकर , विश्व गुरू बनने की तरफ अग्रसर देश !

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शिक्षा लैश होकर , विश्व गुरू बनने की तरफ अग्रसर देश ! ( Our country moving towards becoming a world guru by without education ! )

“ सभी देश सीखें हमसे, वो इतिहास, फिर दोहराना है। जो पहले हुआ करता देश, विश्व गुरू , फिर बनाना है।”

वर्तमान समय में हमारे इतिहास का गौरवगान करते हुए, हमें इस तरह के नारे या सत्ता के वादे सुनाई देना आम बात है. इस बात में कोई शक नहीं कि भारत का इतिहास एक गौरवशाली इतिहास रहा है। हमें हमारी भावी रणनीतियों को भी इस तरीके से तैयार करना चाहिएं कि भारत को फिर से विश्व गुरू बनने का सौभाग्य प्राप्त हो. लेकिन सबसे बड़ा सवाल – क्या शिक्षा लैश होकर ऐसा कर पाना संभव हैं ? क्या हमारे देश में इसके लिए प्रयास भी किए जाते हैं या हमारा यह सपना सिर्फ चुनावी नारे या वादे तक ही सीमित होकर रहा गया ? इन सब बातों पर सवाल उठाना तब और भी जरूरी हो जाता है, जब विश्व गुरू बनने के लिए जो कदम उठाने चाहिए तथा जो कदम उठाए जा रहे हैं, वो एक-दूसरे के विपरित नजर आते हैं.

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शिक्षा व्यवस्था

शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बदलाव के लिए 1964 ईं. में कोठारी कमीशन का गठन किया गया था. इस कमीशन के द्वारा दिए गए सुझाव के अनुसार देश की GDP  का 6 फीसदी खर्च हमें शिक्षा के क्षेत्र में करना चाहिएं. हमारे लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि आज तक हम 6 फीसदी खर्च करने की सिर्फ बातें ही करते हैं. इतिहास के पन्नों से देखें, तो चाणक्य ने शिक्षा और विद्यार्थियों के माध्यम से ही भारत को एकत्रित करने का सपना देखा था तथा महान् मौर्य साम्राज का निर्माण संभव हो पाया. लेकिन वर्तमान परिदृश्य में तो, छात्रों को विश्वविद्यालय खुलवाने के लिए ही आंदोलन करना पड़ रहा है। कोरोना महामारी के बाद सभी गतिविधियां धीरे-धीरे सामान्य होती जा रही हैं, लेकिन जब बात विश्वविद्यालयों के होस्टल खोलने की आती है, तो सरकारों को कोरोना महामारी नजर आती है, जबकि स्कूल भी धीरे-धीरे खोल दिए गए हैं. इसके पीछे का कारण स्पष्ट तौर पर नजर आ रहा है कि विश्वविद्यालय के शिक्षित छात्र अपने हक और सच के लिए आवाज उठाते हैं, जो सरकारें चाहती ही नहीं।

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शिक्षा

विश्वविद्यालय में अभी तक सरकारों को हस्तक्षेप इतना नहीं होता है. लेकिन इसके लिए भी सरकारें लगातार नीतियां बना रही हैं कि IAS अधिकारियों को विश्वविद्यालय का VC नियुक्त किया जाए. ये बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि कुछ IAS अधिकारियों का भी राजनीतिक पार्टियों की तरफ झुकाव होता है तथा सरकारें अपनी पसंद के अधिकारी को ही सहयोग करती हैं। अगर इसके उदाहरण की बात करें, तो हरियाणा में किसान आंदोलन के दौरान एक अधिकारी का विडियों वायरल हुआ जिसमें वो कहते नजर आ रहे हैं कि “सिर फोड़ दो “ जिसपर काफी विवाद भी हुआ. इसके बावजूद कथित तौर पर, उस अधिकारी के खिलाफ कोई कार्यवाही ना करके उसकी पदोन्नति कर दी गई. अगर सरकारें अपनी इस रणनीति में सफल रहती हैं, तो विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता कहां बचेगी ?

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विद्यार्थी शिक्षा

इसके अलावा भी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जो दाखिले की प्रक्रिया अपनाई जाती है, उस पर भी विचार करने की जरूरत है. यह तब और ज्यादा जरूरी हो जाता है जब कॉलेज में दाखिले की कट ऑफ 100 फिसदी तक जाती है. यह तथ्य भी विचारणिय है कि क्या सभी स्कूल बोर्डों का नंबर देने का स्टैंडर्ड बराबर होता है ?  इसके साथ ही सरकारी स्कूल से शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थी या ग्रामीण पृष्टभूमि से आने वाले विद्यार्थियों के लिए तो बड़े कॉलेज में दाखिला एक सपना ही रह जाता है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र या सरकारी स्कूल में 100 फीसदी नंबर कितने विद्यार्थी प्राप्त कर पाते हैं, यह किसी से छुपा नहीं है.

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शिक्षा के क्षेत्र में सरकारों की तरफ से दिखाई जाने वाली ये बेरूखी हमें विश्व गुरू बनने की जगह शिक्षा लैश बनाने की तरफ ज्यादा अग्रसर कर रही है। इसका कारण ये भी हो सकता है कि सरकारें चाहती ही नहीं कि शिक्षा का प्रसार हो, क्योंकि जहां शिक्षा होती है वहां सवाल होते हैं । राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए शिक्षा से ज्यादा जरूरी राजनीतिक पार्टियों को धर्मांधता लगती है. अंत में इसी उम्मीद के साथ शायद हम फिर से शिक्षा व्यवस्था को सुधारने पर ध्यान देगें. शायद सरकारें अपनी जिम्मेदारी को समझेगीं. शायद हम विश्व गुरू बनेगें. लेकिन अभी तक की परिस्थितियों से तो यहीं लगता है कि शिक्षा लैश होकर , विश्व गुरू बनने की तरफ अग्रसर देश !

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