सिख धर्म में पुरुष और महिला के नाम के पीछे ‘सिंह’ और ‘कौर’ लगाने का कारण

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सिख धर्म में पुरुष और महिला के नाम के पीछे ‘सिंह’ और ‘कौर’ लगाने का कारण

सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत देश पर मुग़लों, अफगानों या तुर्कों का राज था, दिल्ली के तख़्त पर औरंगज़ेब का कब्ज़ा था ।औरंगज़ेब के राज के दौरान हिन्दुओं पर अत्याचार आम बात थी। हिन्दू समाज में जाति में भेदभाव आम किस्सा था। सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी – की मुख्य रूप से केवल क्षत्रिय वर्ण के लोग ही हथियार उठाते थे, कुछ अपवादों को छोड़, अधिकांश भारतीय घुटने टेक कर मुग़ल सम्राट एवं उसके नवाबों को नतमस्तक होने को मजबूर थे।

चाहे वैश्य, जाट , शुद्र हों, या ब्राह्मण वर्ण के पंडित, सभी ने अपने समाज की सुरक्षा का दायित्व क्षत्रियों पर छोड़ रखा था लेकिन क्षत्रिय भी कितने दिन अकेले लड़ते, एक के बाद एक इतने हमले हुए की मुग़ल साम्राज्य आते आते अपने आप को क्षत्रिय कहने वाले राजपूत समाज ने भी मुग़लों के साथ गठबंधन कर लिया था। दिल्ली से ले कर कंधार तक एक भी राजपूत ऐसा नहीं बचा था जो की मुग़ल नवाबों के बढ़ते अत्याचारों से समाज को रक्षा प्रदान कर सके।

सिख धर्म

सिखों के दसवें गुरु

सिखों के दसवें गुरु – गुरु गोबिंद राय जी ने आनंदपुर साहिब की घाटियों में एक समागम किया, जिसमें समस्त भारत से आये पुरुष और महिला सम्मिलित हुए. मुग़लों के बढ़ते अत्याचारों को देखते हुए गुरु ने लोगों को ललकारा की कब तक यह ज़ुल्म सहेंगे? कब तक सर झुका के रहेंगे?

तो उन्होंने मांगी कुर्बानी, उन्होंने मांगी बलि. आवाज़ दी की ऐसे कौन हैं जो धर्म की रक्षा के लिए अपने सर की बलि देंगे? सबसे पहले लाहौर का एक दुकानदार बनिया इस बलि के लिए खड़ा हुआ – ‘दया राम’. दया राम को गुरूजी अपने खेमे के भीतर ले गए, कुछ समय बाद खून से सनी तलवार ले कर बाहर आये एवं एक और बलि मांगी ऐसे ही फिर तीसरी बलि, चौथी एवं पांचवी बलि भी मांगी। हर बार बलि देने वाला खेमे में थे।

गुरु गोबिंद

समागम में मौजूद व्यक्तियों ने सोचा की पाँचों की बलि हो गयी है किन्तु गुरु भीतर से पाँचों को जीवित बाहर लाये और घोषित किया की यह पांच – जिन्होंने अपनी बलि तक की परवाह नहीं करी – उनके पहले ‘सिंह’ हैं, उनके ‘पांच प्यारे’. जिस तरह सिंह (यानि शेर) निडर हो सारे जंगल में निडर घूमता और अपने शिकार को दबोच फैकता है, इसी तरह यह सिंह, अपने पूर्व के डरे सहमे जीवन को त्याग कर शस्त्र धारण कर समाज की रक्षा करेंगे एवं ‘खालसा’ कहलायेंगे।

उन्हें तलवार से घोटा हुआ परशाद स्वरूपी अमृत दिया एवं उन्हें सौंपी एक लम्बी तलवार जिसे नाम दिया गया ‘किर्पाण’. आदेश किया की सभी खालसा अपने पुराने नाम त्याग कर ‘सिंह’ नाम धारण करेंगे. खालसा फाज़ के पहले पांच सिख बने –

भारत के उत्तर में लाहौर से सरदार दया सिंह
भारत के मध्य में मेरठ से सदरार धरम सिंह
भारत के पश्चिम में बंगाल की खाड़ी से सरदार हिम्मत सिंह
भारत के पूरब में अरब महासागर से सरदार मुखम सिंह एवं
भारत के दक्षिण से सरदार साहिब सिंह


स्वयं – गुरु गोबिंद राय ने भी अपना नाम घोषित किया – गुरु गोबिंद सिंह और कहा की मैं इन पांच प्यारों का गुरु हूँ और ये पांच मेरे चेले हैं – “आपे गुरु चेला – एक ऐसा सिद्धांत जो समाज को पञ्च स्वरुप सामूहिक जिम्मेवारी ग्रहण करने का सिद्धांत है. कहा की यह पांच जो कहेंगे मैं मानूंगा, और सारा खालसा समाज मानेगा. समस्त समागम में घोषणा की कि जो भी अनुयायी – पुरुष एवं स्त्री – उनके इस संघर्ष में शामिल होना चाहते हैं, वे सभी अपने पुराने वर्ण, जातियां या नाम त्याग करें, एवं धारण करें नयी खालसा फौज के पांच नियम – कछेर, कंघा, कड़ा, केश एवं किर्पाण।

हर पुरुष ‘सिंह’ का नाम धारण करे एवं सिंह की तरह गौरवान्वित हो हमलावर पर टूट पड़ते है। हर स्त्री ‘कौर’ का नाम धारण करे एवं एक राजकुमारी (कौर – यानि कँवर) की तरह गौरवान्वित हो किसी पुरुष से कम न समझ अपने और दूसरों के सम्मान की रक्षा करे।

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इस तरह, भारत की चारों दिशायों से, चार ऐसी जातियों के पुरुष जिन्होंने पहले कभी शस्त्र नहीं उठाये थे, उन्होंने शस्त्रों की पूजा कर शस्त्र धारण किये. और साथ ही धारण किया ऋषियों के ज्ञान एवं शस्त्र योद्धायों का द्योतक – केश – एक जूड़े के रूप में. सदियों पहले भारत से गायब हुआ ‘जटा मुकुट’ वापिस आया, ज्ञान का एक ऐसा चिन्ह जो ब्राह्मणवाद के उदय से पूर्व हर वर्ण के ज्ञानी (जिन्हें ऋषि कहा जाता था) एवं शास्त्र धारण करते थे। यह ही विशेष कारण है जिसके वजह से सिक्ख धर्म में सभी पुरूषों के नाम के पीछे ‘सिंह’ लगाया जाता है और महिलाओं के नाम के पीछे ‘कौर’ लगाया जाता है।