कबीरदास जी ने जाति-पाति का विरोध क्यों किया है

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कबीरदास जी
कबीरदास जी

कबीरदास या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे.कबीरदास जी के  जन्म स्थान के बारे में विद्वानों में मतभेद है नजर आता है, परन्तु अधिकतर विद्वान इनका जन्म काशी में ही मानते हैं, जिसकी पुष्टि स्वयं कबीर का यह कथन भी करता है. “काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये ” . जीवन निर्वाह के लिए कबीरदास जी जुलाहे का काम करते थे. कबीरदास जी की भाषा सधुक्कड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी थी.

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कबीरदास जी

कबीरदास जी ने समाज में फैली हुई अनेंक सामाजिक बुराईयों पर कड़ा प्रहार किया. इसके साथ ही उन्होंने उस समय धर्मों में फैली बुराईयों का जिक्र भी बिना भय के किया. उस समय समाज में अनेंक बुराईयाँ फैली हुई थी. जिसमें जाति आधारित बुराईयां बड़े स्तर पर समाज को घेरे हुए थे. कबीरदास जी भी समाज द्वारा उस समय नीची जाति मानी जाने वाली जाति से संबंध रहते थे. उस समय समाज में छुआ-छुत बड़े स्तर पर फैली हुई थी. कबीरदास जी स्वयं समाज द्वारा कथित नीची जाती से संबंध रखने के कारण जाति व्यवस्था के बुरें प्रभाव झेल चुके थे. जिसके कारण उन्होंने जाति-पाति का कड़े शब्दों में विरोध किया.

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कबीरदास जी

कबीरदास जी लिखते हैं कि “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का,  पड़ा रहन दो म्यान “. इसमें कबीरदास जी ने जात-पात का विरोध करते हुए कहा है कि आप किसी से ज्ञान प्राप्त कर रहे हो तो उसकी जाति के बारे में ध्यान न दो क्योंकि उसका कोई महत्व नहीं होता है. बिल्कुल वैसे ही, जैसे तलवार का महत्व उसे ढकने वाले म्यान से ज्यादा होता है.

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कबीरदास जी ने उस समय के समाज और अंधविश्वास पर बहुत कड़ा प्रहार किया. उन्होंने समाज को आइना दिखाने का काम किया. कबीरदास जी को एक महान् सुधारक के तौर पर भी जाना जाता है.